हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -1☆ सपने में बापू ☆ डॉ कुन्दन सिंह परिहार
ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1
डॉ कुन्दन सिंह परिहार
उस रात सपने में बापू दिखे। बहुत कमज़ोर और परेशान। लाठी टेकते, कदम कदम पर रुकते। देख कर ताज्जुब और दुख हुआ। पहले भी दो चार बार दिखे थे। तब खूब स्वस्थ और प्रसन्न दिखते थे। आशीर्वाद की मुद्रा में हथेली उठी रहती थी।
थके-थके से बैठ गये। मैंने हाल-चाल पूछा तो करुण स्वर में बोले, ‘भाई, मैं यह कहने आया हूँ कि तुम लोग तो फेसबुक-वेसबुक इस्तेमाल करते हो। मेरी एक अपील डाल दो। मैं अब राष्ट्र पिता और बापू नामों से मुक्ति चाहता हूँ। मैं बहुत परेशान और दुखी हूँ। जीवित रहते तो मुझ पर एक ही बार गोली चली थी, अब तो रोज़ मेरी आत्मा को छेदा जा रहा है। कभी मेरी मूर्ति की नाक तोड़ी जा रही है, कभी चश्मा तोड़ा जा रहा है, कभी सिर ही तोड़ दिया जाता है। देश के लोगों से किसने कहा था कि मेरी मूर्तियाँ लगवायें? मूर्तियाँ लगवाकर मेरी दुर्गति की जा रही है।’
बापू कमज़ोरी के कारण थोड़ा रुके, फिर बोले, ‘दरअसल इस देश की हालत उन गुरू जी जैसी हो गयी है जिन्होंने अपनी दो टाँगों की सेवा का जिम्मा अलग अलग दो शिष्यों को दिया था। शिष्यों में आपस में झगड़ा हो गया और उन्होंने बदला लेने के लिए एक दूसरे के हिस्से की टाँग पर लाठी बरसाना शुरू कर दिया। नतीजतन गुरू जी की दोनों टाँगें टूट गयीं। इसी तरह इस देश में लोग एक दूसरे के हिस्से की मूर्ति तोड़ रहे हैं। एक दिन इस देश में देवताओं की मूर्ति के सिवा कोई मूर्ति नहीं बचेगी।’
बापू फिर थोड़ा सुस्ता कर बोले, ‘अब इस देश को आज़ादी मिले सत्तर साल हो गये हैं। यह देश अब सयाना हो गया है। लोग भी सयाने, ज्ञानी हो गये हैं। अब इस देश को किसी पथप्रदर्शक या प्रेरणा-पुरुषों की ज़रूरत नहीं है। अब सब मूर्तियों को उठाकर संग्रहालयों में रख देना चाहिए। यहाँ मूर्तियाँ टूटती हैं तो सारी दुनिया देखती है और हम पर हँसती है। अपने हाथों अपनी फजीहत कराने से क्या फ़ायदा?’
बापू दुख में सिर झुकाकर आगे बोले, ‘अब लोग टीवी पर खुलकर बोलते हैं कि वे मुझे राष्ट्र पिता नहीं मानते। मुझ पर दोष लगाते हैं कि मैंने देश को बँटने दिया। मुझ पर गोली चलाने वालों की मूर्तियाँ और मन्दिर बन रहे हैं। मेरे चित्रों वाले नोटों का इस्तेमाल रिश्वत के लेनदेन में और काला धन बनाने में धड़ल्ले से हो रहा है। मेरी समाधि पर दुनिया भर का पाखंड हो रहा है। मेरी मूर्तियों के नीचे रोज़ धरने और मनमानी नारेबाज़ी हो रही है। इसलिए अब मुझे मुक्ति मिल जाये तो हल्का हो जाऊँगा।’
मैं भारी मन से उनकी बात सुनता रहा। वे फिर बोले, ‘यह मेरी अपील ज़रूर डाल देना। मुझे और दुखी मत करना। मुझे तुम पर भरोसा है।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश