हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-2 ☆ चौराहे पर गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय
ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2
श्री प्रेम जनमेजय
(ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रेम जनमेजय जी का हार्दिक स्वागत है. शिक्षा, साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में एक विशिष्ट नाम. आपने न केवल हिंदी व्यंग्य साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है अपितु दिल्ली विश्वविद्यालय में 40 वर्षो तक तथा यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्ट इंडीज में चार वर्ष तक अतिथि आचार्य के रूप में हिंदी साहित्य एवं भाषा शिक्षण माध्यम को नई दिशाए दी हैं। आपने त्रिनिदाद और टुबैगो में शिक्षण के माध्यम के रूप में ‘बातचीत क्लब’ ‘हिंदी निधि स्वर’ नुक्कड़ नाटकों का सफल प्रयोग किया. दस वर्ष तक श्री कन्हैयालाल नंदन के साथ सहयोगी संपादक की भूमिका निभाने के अतिरिक्त एक वर्ष तक ‘गगनांचल’ का संपादन भी किया है. व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर. आपकी उपलब्धियों को कलमबद्ध करना इस कलम की सीमा से परे है.)
☆ चौराहे पर गांधी ☆
(मित्रों, आज महात्मा गाँधी का जन्मदिन है। आज लाल बहादुर शास्त्री का ‘भी ‘ जन्मदिन है। इन दिनों गाँधी बहुत याद आ रहे हैं। पता नहीं क्यों लाल बहादुर शास्त्री इसी दिन याद आते हैं ! मुझे गाँधी जी पर लिखी अपनी एक कविता याद आ रही है –चौराहे पर गांधी। ‘ उसे साझा करने का मन हुआ सो कर रहा हूँ – प्रेम जनमेजय )
मंसूरी में, लायब्रेरी चौक पर
राजधानी की हर गर्मी से दूर
आती -जाती भड़भडाती
सैलानियों की भीड़ में अकेला खड़ा
सफेदपोश, संगमरमरी, मूर्तिवत, गांधी।
क्या सोच रहा होगा —
अपने से निस्पृह
भीड़ के उफनते समुद्र में
स्थिर,निस्पंद,जड़
नहीं होता इतना तो कोई हिमखंड भी
खड़ा ।
क्या सोच रहा है, गांधी ?
सोचता हूँ मैं ।
कोटि- कोटि पग
इक इशारे पर जिसके, बस
नाप लेते थे साथ- साथ हज़ारों कदम
अनथक
वो ही थका -सा
प्रदर्शन की वस्तु बन साक्षात
अकेला
संगमरमरी कंकाल में, किताबी
मूर्तिवत खड़ा-सा
क्या सोच रहा है, गांधी ?
स्वयं में सिमटी सैलानियों की भीड़
नियंत्रित करतीं वर्दियां
कारों की चिल पौं को
पुलसिया स्वर से दबातीं सीटियां
एक शोर के बीच
दूसरे शोर की भीड़ को
जन्म देती
मछली बाजार -सी कर्कश दुनिया
किसी के पास समय नहीं
एक पल भी देख ले गांधी को
अकेले अनजान खड़े, गांधी को ।
क्या सोचता होगा गांधी ?
भीड़ में भी विरान खड़ा
क्या, सोचता होगा गांधी !
सोचता हूं,
सोचता होगा
भीड़ के बीच क्या है प्रासंगिकता… मेरी ?
मैं तो बन न सका
भीड़ का भी हिस्सा
बस, खड़ा हूं शव-सा औपचारिक
इक माला के सम्मान का बोझ उठाए
किसी एक तारीख की प्रतीक्षा में
अपनेपन की सच्चाई को तरसता
अनुपयोगी, अनप्रेरित अनजान बिसुरता ।
हमारे पराएपन को झेलता
हमारा अपना ही
बंजर बेजान खड़ा है गांधी ।
मेरा गांधी, तेरा गांधी
अनेक हिस्सों में बंटा गांधी
सड़कों और चैराहों को
नाम देता गांधी
हमारी बनाई भीड़ में
वीरान- सा चुपचाप,
खड़ा है, अकेला गांधी ।
क्या सोचता है गांधी ?
क्या, सोचता है गांधी !
© प्रेम जनमेजय