श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक एवं सटीक व्यंग्य “जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है”। इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल जैन जी से ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। )
☆☆ जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है ☆☆
वे जब बाहर निकले तो उनकी आँखों में चमक, होठों पर स्मित मुस्कान, चेहरा दर्प से दीप्त और चाल में विजेता का बांकपन था. वे खुदरा मंडी में सब्जी बेचनेवालों को परास्त करके बाहर निकल रहे थे. आज पूरे चार रुपए पैंतीस पैसे बचाये. वे मानते हैं कि सब्जी खरीदना एक कला है जिसमें वे निष्णात हैं. हर सुबह उनका सामना एक ऐसे विपक्ष से होता है जो न केवल भाव ज्यादा लगाता है बल्कि तौल में दंडी भी मारता है. एक बार जमीन पर छबड़ी लगाकर बैठी बूढ़ी अम्मा से खरीदी गई ढाई सौ ग्राम भिंडी चेक कराने पर एक तौला कम निकली, तब से अतिरिक्त सावधानी रखते हैं. कुछ प्रेक्टिकल प्रॉब्लेम्स नहीं होते तो वे तराजू बाँट जेब में रखकर चलते.
उनका मानना कि देश में सबसे बड़े बेईमान व्यापारी अगर कहीं पाये जाते हैं तो वे सब्जी मंडी में पाये जाते हैं और उनसे निपटना सिर्फ वे जानते हैं. सो रोजाना, सब्जी खरीदने वे स्वयं आते हैं. उनका एक बेटा है, बड़ी फेक्ट्री में जनरल मैनेजर (परचेस) पोजीशन पर. सब्जी खरीदने के मामले में वे उस पर भी भरोसा नहीं करते. बोले – ‘शांतिबाबू, इन लाटसाब को एकबार भेजा था मंडी. ढाई रूपे की पालक की गड्डी तीन रूपये में उठा लाये. पढ़ लिख लेने से अकल नहीं आ जाती. आदमी बड़ा मनीजर हो जाये और सब्जीवाला ही लूट ले तो बेकार है ऐसी पढ़ाई. तब से सब्जी खरीदने मैं खुद जाता हूँ.’
मंडी में वे ऐसे ग्राहक हैं जिसे अपनी दुकान की ओर आता देखकर विक्रेता को खुशी नहीं होती. कुछेक सब्जीवालियाँ भाव बताने से भी मना कर देती हैं – ‘रेने दो सेठजी – तम खरीदीनी सकोगा, आगे की दुकान पे देखी लो.‘ ऐसे कमेंट्स उनके लिये तमगों की तरह हैं. उन्हें ठीक से याद नहीं कभी धनिया और मिर्च खरीद कर लिया हो. तुल जाने के बाद एक-दो गिल्की-तौरई झोले में यूँ ही डाल लेने का विधान पालते हैं. पचास-सौ ग्राम फाल्से, जामुन तो वे चखने में ही खींच देते हैं. वे उनसे सब्जी नहीं खरीदते जो छांटने नहीं देते. करीने से जमाया गया वो हरा टिंडा जो उन्हें लुभाता है जमावट बिगड़ने के डर से दुकानदार उसे देने से मना कर देता है. वे मन ही मन दुकानदार को गरियाते हुये आगे निकल जाते हैं.
हरदिन वे मंडी के मिनिमम चार राउंड लगाते है, पहले राउंड में कहाँ क्या है. दूसरे में, वे हर सब्जी का हर दुकान से ओरल कोटेशन लेकर कम्पेरेटिव स्टडी करते हैं. तीसरे राउंड में बारगैन और फ़ाइनल में खरीदी करके विजेता की मानिंद बाहर निकलते हैं. आज फिर चार रुपए पैंतीस पैसे बचाकर, चाल में विजेता का बांकपन लिये, वे बाहर निकल रहे हैं.
लेकिन आप रुकिये जनाब, पार्ट-टू बाकी है अभी. कभी-कभी वे वाईफ के इसरार पर मेगा स्टोर तक जाते हैं. यहाँ अदरक नहीं मिलता, ज़िंज़र परचेस करना पड़ता है. ब्रोकोली, ब्रिंजल्स, पोटेटो, टॉमेटो हर पीस अपने उपर चिपके प्राईस स्टीकर पर लेकर, बिलिंग काऊन्टर की ओर ठेला धकाते हुये वे खुश हैं. फॉर्टी-टू रूपीस एक्स्ट्रा हुये तो क्या परचेसिंग मेगा स्टोर्स से जो की है. चाल में अंकल सैम की अदाओं का बांकपन लिये, वे दोनों बाहर निकल रहे हैं.
© श्री शांतिलाल जैन
F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल – 462003 (म.प्र.)
मोबाइल: 9425019837