हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – ☆ पाठशाला के आँगन में ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे
शिक्षक दिवस विशेष
श्री मच्छिंद्र बापू भिसे
(शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की कविता पाठशाला के आँगन में.)
☆ पाठशाला के आँगन में ☆
गुरूजी कल फिर मैंने एक मनभावन सपना देखा,
मुरझाए फूल को हँसते-हँसाते आपका चेहरा ही देखा।
पल्लू को कस के पकड़े,पिता की उंगली थामे,
था बैठा मैं,न डर था न किसी से नफरत थी हमें
उम्र ने दी दस्तक,चल पाठशाला के आँगन में,
लिए हाथ कोरी पाटी और विश्वास भरे मन में
न चाहते हुए भी पाटी पर शब्दों को उभरे देखा।
आपको फिर बच्चा बनाए आपसे गीत सुनवाएँ,
बचपन के आँगन में,दोस्तों के साथ गीत गाए
उसकी पाटी,मेरी पेन्सिल,प्यारे झगड़े हमें भाए,
मन में गुस्सा पल का,अगले पल फिर गले मिल जाए
हमारे गुस्से-प्यार में आपका मन-मुस्काता चेहरा देखा।
नासमझ से समझदार बाबू हम बन गए,
हमारी शरारतें भी अपनी आदत मानकर सह गए
दिखाई जो श्रद्धा हम पर,आप आगे चल दिए,
मुड़कर न देखना कहकर,हमें आगे बढ़ाते जो गए
गुरूजी उन हाथों को और प्यार को सख्त होते जो देखा।
गिरकर उठना,उठकर चलना,आपने ही सिखाया,
भटके हुए थे कभी बचपने में,सही रास्ता भी दिखाया
अहंकार ने जब भी छुआ,नम्रता का पाठ भी पढ़ाया,
खोए कभी उम्मीद अपनी,रोशनदान बन सबेरा उगाया,
यौवन की बेला पर हमें संभालते हुए फिर से आपको देखा।
गुरूजी,आज वह परछाई फिर से ढूंढ रहा हूँ,
शायद जिंदगी की तलाश में अपने तन की
खोखली उम्मीदों के बीच खोई रूह ढूँढ रहा हूँl
जो कभी बचपने से यौवन तक आपने सँभाली थी,
उसे आपकी परछाई के तले सुमन-सा बिछता हुआ देखा ।
© मच्छिंद्र बापू भिसे
भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)
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