हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – ☆ इससे श्रेष्ठ शिक्षक नहीं देखे ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग
श्रीमति समीक्षा तैलंग
(शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी का विशेष आलेख इससे श्रेष्ठ शिक्षक नहीं देखे. )
☆ इससे श्रेष्ठ शिक्षक नहीं देखे ☆
वैसे तो मेरी स्कूली पढाई किसी घुमक्कड़ की तरह ही 6 स्कूलों से हुई। मतलब किंडरगार्टन से लेकर बारहवीं। ऊपर से ये कि एक बीएससी ही किया उस पर भी दो विश्वविद्यालयों का ठप्पा। न जाने कितने तरह के टीचरों से पाला पडा़। कभी पीटने वालों से भी पडा़। और कभी प्यार से समझाकर सिखाने वालों से भी।
सोने पे सुहागा ऐसा कि पढाई भी दो माध्यमों से पूरी हुई। पहले अंग्रेजी फिर हिंदी माध्यम वो भी आठवीं में बदला गया। भैया ट्रांसफर के यही हाल होते हैं। सरकार तो बस ऑर्डर देना जानती है। शहरों से लेकर घरों की अदला बदली और फिर स्कूलों की अदला बदली से लेकर टीचरों और दोस्तों की। सब कुछ गड्डमड्ड।
पर आखिरी स्कूल की बात ही कुछ अलग थी। जितने भी टीचर थे वे खुद इतने अनुशासन में रहते कि बच्चों को अनुशासन में होना आवश्यक ही था। उन्हें जरा भी अनुशासनहीनता नहीं चलती। छोटी छोटी बातों पर कडी निगाह रहती। ब्लैकबोर्ड पर समझाते वक्त पूरा ध्यान रहता कि बैकबैंच पर कुछ खिचड़ी तो नहीं पक रही।
चॉक का निशाना भी बडा़ सटीक बैठता। क्लास में लडके लडकियां सब साथ पढते। पर पीटते वक्त टीचर कोई भेदभाव न करते। गलती की सजा दोनों को बराबर। आज के समय में शिक्षक भी सहमा हुआ और बच्चा भी। उस समय पढाई ऐसी कि कभी ट्यूशन पढने की जरूरत महसूस नहीं हुई। और यदि कोई अनुपस्थित हुआ बिना कारण तो समझो फिर उसकी शामत।
अरे भाई, घर धमक जाते सीधे। और यदि कोई वाजिब कारण मिलता तब उनकी पूरी कोशिश रहती कि बच्चे को कोई दिक्कत न हो। या पढाई में पीछे न छूट जाए। जिसके लिए प्राचार्य से निर्देश रहते कि स्कूल के बाद उनके घर जाकर पढाया जाए। और वे जाते भी।
उस स्कूल का एक और अलग रिवाज था। वहां किसी अभिवावक को स्कूल में टिचरों से मिलने नहीं आना पडता। बल्कि क्लास टीचर निश्चित दिन प्रत्येक छात्र के घर जाया करते। बाकायदा डायरी में पूरी रिपोर्ट तैयार करते। घर में सबसे मिलकर जाते।
एक बार की बात है। एक महीना तेज बुखार के कारण स्कूल नहीं जा पायी। तब हम लोग छतरपुर में रहते थे। वहां उस समय उतना अच्छा इलाज नहीं था। ग्यारहवीं क्लास में थी। वो भी साइंस सब्जेक्ट के साथ। कार से ग्वालियर ले जाया गया। ठीक होने में लगभग बीस पच्चीस दिन और लगे।
वापसी हुई तो ढेर सारी पढाई छूट चुकी थी। परीक्षाएं नजदीक थी। कोर्स को अपनी गति से बढना ही था। स्कूल में टीचरों ने एक्स्ट्रा क्लासेस लेकर पढाया। अब क्लास के संग पढाई का मिलना बहुत मुश्किल होता जा रहा था। हमारे स्कूल के प्राचार्य ने तभी निर्देश दिए कि उसकी पढाई काफी पिछड़ गई है। आप लोग हफ्ते में एक दिन जब तक कोर्स क्लास से नहीं मिल जाता और उसे जब तक समझ में नहीं आ जाता तब तक घर जाकर पढाना होगा। ट्यूशन पर पूरी पाबंदी थी। और शिक्षक भी अपने काम में ईमानदार। बचपन में देखा हुआ आगे के लिए सीख होती है।
सच में आज भी याद है, उन टीचरों ने इतनी मेहनत से पढाया कि उस समय भी उन्होंने मुझसे 75% प्रतिशत के ऊपर लाकर ही दम लिया। वो भी साइंस स्ट्रीम में।
वाकई तब हमारे शिक्षक सख्त जरूर हुआ करते थे। पर उन्हीं की बदौलत तब जो भी कुछ सीख पाए, आज तक याद है। उन सभी गुरुजनों को मेरा हृदय से नमन।
उस स्कूल के मेरे कुछ दोस्त फेसबुक पर हैं जो शायद इस पोस्ट को पढकर उन्हें भी अपने स्कूल के लिए गर्व महसूस होगा।
© श्रीमति समीक्षा तैलंग, पुणे