हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – ☆ वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो ☆ – डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

शिक्षक दिवस विशेष

डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

 

(शिक्षक दिवस के अवसर पर आज प्रस्तुत है डॉ. ज्योत्सना सिंह रजावत जी का विशेष आलेख “वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो”.)

 

☆ वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो ☆

 

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।

स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥

प्राचीन काल में शिक्षा की महत्ता को यहाँ तक स्वीकार किया गया है कि विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती है. क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, जबकि विद्वान सर्वत्र, यानि जहाँ-जहाँ जाता है हर जगह सम्मान पाता है।भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिकता पर आधारित थी। शिक्षा का प्रारंभिक स्वरूप ऋग्वेद था। वेद और वेदागों में शिक्षा का उद्देश्य, ब्रह्मचर्य, तप और योगाभ्यास से तत्वों का समन्वित सार, उपनिषद, आरण्यक, वैदिक संहिताओं में, स्वाध्याय, सांगोपांग अध्ययन, श्रवण, मनन की शिक्षा दी जाती थी।विद्यार्थी जीवन का सबसे पहला और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम था जहाँ बालक की पाँच वर्ष की अवस्था से शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी। गुरुगृह में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता  उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी। धर्म ग्रन्थों में चारो वर्णों के बालकों के अध्ययन की अवस्था का अलग- अलग विधान था। गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करनेवाले व्रतचारी श्रुतर्षि जो सुनकर वेदमंत्रों को कंठस्थ कर लेते थे। आचार्य स्वर के साथ वेदमंत्रों का परायण करते और  ब्रह्मचारी छात्र उन उसी प्रकार दोहराते चले जाते थे।  ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था। प्रातः वन्दन संध्या वन्दन,होम अनुष्ठान करते थे। विद्यार्थियों के लिए भिक्षाटन अनिवार्य था। भिक्षा से प्राप्त अन्न गुरु को समर्पित कर देते थे। समावर्तन के अवसर पर गुरुदक्षिणा देने की प्रथा थी। समावर्तन के पश्चात्‌ भी स्नातक स्वाध्याय करते, नैष्ठिक ब्रह्मचारी आजीवन अध्ययन करते, समावर्तन के ब्रह्मचारी दंड, कमंडल, मेखला, आदि को त्याग देते थे। ब्रह्मचर्य व्रत में जिन-जिन वस्तुओं का निषेध था उन सबका उपयोग कर सकते थे।ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे ,वाद विवाद और शास्त्रार्थ में संम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे।

भारतीय शिक्षा में आचार्य का स्थान बड़ा ही गौरव स्थान था। उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था। आचार्य पारंगत विद्वान्‌, सदाचारी, क्रियावान्‌, विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते उनके चरित्र निर्माण,के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते थे।

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।

तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥

धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।

आजकल गुरु शिष्य परम्परा मिट गई है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली एवं वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बहुत अंतर आ गया है।अब शिक्षकों का मुख्य उद्देश्य अर्थ कमाना है। अब न गुरुओं में समर्पण है एवं चरित्र निर्माण की बात है ,और न ही छात्रों में सम्मान की भावना। अब इन दोनों के मध्य सिर्फ औपचारिकता मात्र रह गई है। पहले जहाँ बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के लिए,घर परिवार से दूर गुरुकुल में रहते थे। गुरु मातृ पितृ से बढ़कर होते थे , गुरु छात्रों को अन्तः ज्ञान और वाह्य ज्ञान की शिक्षा के लिए सदैव समर्पित रहते थे। आज मशीनीकरण के युग में शिक्षा देने के उपकरण भी उपलब्ध हो गए हैं, बच्चों में नैतिक मूल्यों काआभाव हो गया है।वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो । प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो।

 

डॉ ज्योत्स्ना सिंह

सहायक प्राध्यापक, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर मध्य प्रदेश