श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण ‘यादें  पिता  की…’।)

☆ संस्मरण – यादें  पिता  की… ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

वे जेब खर्ची देने वाले पिता नहीं थे।  वे उन पिताओं जैसे भी नहीं थे जो अपने बच्चों के बस्ते आप उठाकर उन्हे स्कूल बस में चढ़ाने जाते हैं। न ही वे हमें किसी आधुनिक पिता जैसा लाड़ प्यार करते थे। वे सख्त किस्म के पिता थे। उनका मानना था कि लाड़ प्यार से बच्चे बिगड़ते हैं अत: जहां वे मामूली गलती भी करें, उनकी पिटाई होती रहनी चाहिए। मार पीट के मामले में हम बचपन से ही ढीठ बन चुके थे।

(पिता स्वर्गीय चौधरी मुगला राम)

जीवन मूल्यों व संघर्ष की स्वयं अपनी शिक्षा के लिए पिताजी ने स्कूल वगैरा को कभी बीच में आने नहीं दिया। कोई लिखना पढ़ना नहीं। कोई थिअरी नहीं। सब कुछ प्रैक्टिकल। यही कुछ वे हमें सिखाना चाहते थे। 1947 में गांव में आ बसे पंजाबी परिवारों की सोभत में उन्होंने अपने पुत्रों को स्कूल भेजना तो शुरू किया पर जीवन कौशल की सख्त प्रैक्टिकल ट्रेनिंग में कोई रियायत नहीं की।

इस सब के बावजूद पिता सही मायने में  हमारे शुभचिंतक व संरक्षक थे। संतान प्राप्ति के लिए ही तो उन्होंने एक के बाद एक, चार शादियां की थी।

हमारे गांव में स्कूल नहीं था। पास के गांव पूंडरी में था। पहली क्लास में हमारा दाखिला वहीं हुआ।

हम कापियों पर पेंसिल या पैन से नहीं, तख्तियों पर स्याही और कलम से सुलेख लिखते थे। मुल्तानी मिट्टी से तख्ती पोची जाती थी।

तख्ती लड़ने के काम भी आती थी। कई बच्चे तो तलवार की तरह घुमाकर तख्ती चलाते थे। एक दिन दो बच्चों में ऐसा तख्ती युद्ध हुआ कि एक बच्चे के सिर से खून बहने लगा। एक अध्यापक ने उसकी मरहम पट्टी की। स्कूल में फर्स्ट एड बॉक्स था।

फिर सभी बच्चों को इकट्ठा किया और अध्यापक ने गुस्से से सभी को धमकाया कि अगर वे लड़ाई करेंगे तो उन्हे स्कूल से निकाल दिया जाएगा। जो पढ़ना नहीं चाहता वह स्कूल में न आए।

आखरी बात मुझे बड़ी अच्छी लगी। जब दोबारा कक्षाएं शुरू हुईं तो मैं अपना थैलानुमा बस्ता और तख्ती उठाकर अध्यापक के पास गया और उनसे कहा कि मैं नहीं पढ़ना चाहता। यहां बच्चे लड़ाई करते हैं। मैं घर जाना चाहता हूं।

“अबे जा उल्लू के पट्ठे। तुझे कौन बुलाने गया था कि तू स्कूल में आ!”

मैं डर कर पीछे हटा। हैरान था कि कुछ देर पहले यह कहने  वाला अध्यापक कि जो पढ़ना नहीं चाहता, अपने घर जाए, अब क्यूं गुस्सा हो रहा था। खैर, मैं अपना तख्ती बस्ता लेकर त्यागी चौपाल में चल रहे स्कूल से वापिस अपने गांव और घर की ओर निकल गया।

गांव पहुंचा तो गली में ही चंद्रभान बनिए की दुकान पर बापू को बैठे पाया और ठिठक कर वहीं रुक गया। उन्होंने पूछा कि जल्दी कैसे आ गया तो मैंने साफ़ साफ़ सारा किस्सा सुना दिया यह कहते हुए कि मैं स्कूल में नहीं पढ़ना चाहता।

अच्छा तू नहीं पढ़ना चाहता… यह कहते हुए बापू ने अपने पैर की जूती उठाई और ज़ोर से मेरी तरफ फेंकी। उनका निशाना कुछ चूक गया और उन्हें अपनी तरफ आता देख मैं वहां से भाग लिया।

मैं आगे और बापू पीछे, गांव की फिरनी का पूरा चक्कर काट लिया। घूम कर स्कूल के रास्ते पर जब मैं मुड़ा तो बापू ने मेरा पीछा करना छोड़ा।

मैं बापू के गुस्से को समझ नहीं पाया पर पिटाई से बचने के लिए वापिस स्कूल की तरफ हो लिया। मन में एक और डर था कि अध्यापक भी पिटाई करेगा।

स्कूल की तरफ कुछ ही दूर गया था कि पंजाबी लड़का अविनाश ग्रोवर वापिस आता मिल गया। कहने लगा, आगे कोई लंबा सांप निकला है और उसने सांप के रास्ते से गुजरने के निशान देखे हैं।

मैं और डर गया। अकेला आगे कैसे जाऊं? रास्ते में सांप आ गया तो?

मैं वापिस अविनाश के साथ गांव की तरफ ही मुड़ लिया। पिता का भी डर था। मुझे दोनों तरफ सांप नज़र आने लगे। गांव की तरफ ही चलता गया यह सोच कर कि बापू तब तक दुकान से जा चुका होगा।

पर वो तो वहीं बैठा मिला ।

फिर वापिस आ गया तू? वह गुस्से से बोला। मैंने हकलाते हुए कहा, रास्ते में सांप था।

चन्द्रभान बनिए ने कुछ बीच बचाव किया। ….चाचा, बच्चा डर गया है, अब की बार माफ़ कर। आगे से यह स्कूल से नहीं भागेगा…

मैंने बगैर पूछे ही बार बार हामी भरते हुए गर्दन हिलाई।

“क्यों, फिर भागेगा”, बापू ने पूछा। वह पूरी तसल्ली करना चाहता था। मैंने दोनों कान पकड़ कर गर्दन दाएं बाएं हिलाते हुए ना कहा।

ऐसे काम नहीं चलेगा। नाक से तीन लकीरें निकाल कि तू फिर स्कूल से नहीं भागेगा।

मैंने तुरंत नाक से तीन लकीरें निकाली और कहा कि फिर कभी स्कूल से नहीं भागूंगा।

बापू ने कहा, जा घर जा।

आज माफ़ कर दिया, फिर नहीं करूंगा।

बस वो दिन और आज का दिन। मैं कभी स्कूल तो क्या कॉलेज या फिर दफ्तर की ड्यूटी से भी नहीं भागा। तीन लकीरें जो निकाली थीं नाक से।

तीन लकीरें सहज ही मेरे लिए बापू को दिए तीन वचन बन गईं :  पहला वचन कि कभी किसी काम से नहीं भागना भले ही कश्मीर के आतंकवाद में ड्यूटी करनी हो; दूसरा वचन कि पूरे मन से काम करना, इसी से ज्ञान व कौशल मिलेगा और मान सम्मान प्राप्त होगा तथा आखरी व तीसरा वचन यह कि जिस काम की दिल गवाही न दे, उसे करने से बचना।

पितृ दिवस पर नमन मेरे पिता को और उन जैसे सभी पिताओं को।

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647034

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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