श्रीमति ऊषा रानी
☆ संस्मरण- “मिट्टी का आँगन”☆ श्रीमति ऊषा रानी
मेरा घर और मिट्टी का आँगन मुझे आज भी बहुत याद आता है।
मैं, अपने भाई-बहनों में तीसरी संतान, बहुत नटखट, जिद्दी और चंचल थी। मम्मी, मेरा बहुत ध्यान रखती थी। हमारे घर में मिट्टी का आँगन था। मेरी मम्मी, मिट्टी से आँगन लीपती थी।
हम सब भाई-बहन और पड़ोस के बच्चें आँगन में खेलते थे लेकिन मिट्टी का आँगन, मुझे बहुत लुभाता था। आंगन भी मुझे देख कर प्रसन्न रहता था, लेकिन मई-जून का माह और स्कूल के ग्रीष्म अवकाश में सूर्य का तेज मुझे और आँगन को बहुत सताता था, घर पूरब दिशा में होने के कारण प्रात: सूर्य की किरणें, आँगन में प्रवेश कर जाती थी। आँगन में ही रसोई वो भी खुली थी, रसोई से लगी सीढियां छत की ओर जाती उसी सढियों के नीचे रसोईघर था।मम्मी प्रातः ही भोजन बनाती और बाबू जी हमे नहला देते थे। मम्मी, रसोई का काम समाप्त कर, हमें कमरे में अंदर रखती और धूप की तरफ से हल्का दरवाजा फेर लेती थी।
गर्मी की तपन मुझे और आँगन को बुरी तरह झुलसाती थी। आँगन में जगह-जगह मिट्टी की पपड़ी बन कर उतरती थी, मुझे आँगन की यह हालत देखी ना जाती थी। मम्मी शाम को आँगन में, झाडू लगा कर पानी का छिड़काव करती तब और ज्यादा गर्मी हो जाती लेकिन कुछ समय बाद आंसमा में चांद,तारों का शीतल व्यवहार आंगन को कुछ राहत देता था इसी तरह से गर्मियों की छुट्टियां बीतती। जुलाई माह में स्कूल का खुलना और मौसम का करवट बदलना मुझे बहुत अच्छा लगता था।
बरसात के मौसम में आंधी के साथ पेड़ के सूखे पत्तों का आँगन में आ जाना, मुझे बहुत आर्कषित करता था, मन ख्वाबों की उड़ान भरता और सोचता कि विशाल पेड़ के पत्ते जिन्हें में छू नही पाती थी, आज मेरे आँगन में मेरे साथ खेलेगे। मैं बहुत खुश होती और हाथ फैला कर लट्टू की तरह घूम जाती फिर पत्तों को देखती, ये क्रम चलता रहता।
फिर आसमां में घटा का घिरना, नन्ही-नन्ही बूंदों का आंगन को स्पर्श करना, मानों कई माह की बिछड़न बाद एक-दूसरे को गले लग रहे है।
तपस हीं दूरियां समाप्त करती धरा का आलिगंन करना प्रकृति को स्वत: हरा- भरा कर देता है, वर्षा रुपी मोती से आंगन का भर जाना फिर धरा- अम्बर का मिलना मेरे कल्पना रुपी आंगन को, मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू से महका कर, वातावरण को सुगंधित बना देता है।
फिर तेज बारिश में, भीगने को आँगन में दौड़ना, मिट्टी में फिसलना और गिर जाना, मम्मी को अच्छा नही लगता इस लिए अक्सर मम्मी मुझे बारिश में भीगने नही देती।
मैं कमरे से ही आँगन में बारिश का बरसना और पानी में बुलबुले बनाना, बिखरना निहारती थी, ये प्रकृति क्रीड़ा मुझे, अपनी ओर आर्कषित करती थी, बूंदों का तड़- तड़ की आवाज करना मानों सरगम का स्वर होना मन मयूर नृत्य करने को मजबूर कर देता।
पानी का, आँगन में भरना और तेजी से जल निकासी से बाहर जाना मुझको अच्छा लगता था, मिलकर दूर जाना, मुझे आज भी एकांकी ओर ले जाता है, शायद मिलना- बिछड़ना प्रकृति में विद्यमान है।
आज भी मैं बारिश में नही निकलती हूँ। हवा के झोकों, वर्षा की फुहार में मम्मी का मेरे साथ होना महसूस होता है। मम्मी का हाथ पकड़ना,बारिश में नही जाने देना, मेरे स्मृति चिन्ह में आ जाता है।
मुझे “मिट्टी का आँगन” रह-रह कर, आज भी याद आता है। बहुत तड़पाता है मेरी मम्मी की याद दिलाता है आंखों में पलकों को भिगोकर चला जाता है।
मुझे आज भी “मिट्टी का आंगन” याद आता है।
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© श्रीमति ऊषा रानी (स०अ०)
सहायक अध्यापक
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