डॉ कुंदन सिंह परिहार
☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – एक हरदिल-अज़ीज़ इंसान का विदा होना ☆ डॉ. कुंदन सिंह परिहार ☆
भाई जयप्रकाश पांडेय अचानक ही, असमय, संसार से विदा हो गये। अल्पकाल में ही बीमारी ने उनका जीवन-दीप बुझा दिया, और हम सब उनके मित्र ठगे से देखते रह गये। उनके परिवार के लिए यह अकल्पनीय आघात है। प्रकृति ऐसे ही बेलिहाज हमें जीवन की अनिश्चितता और क्षणभंगुरता का आभास कराती है।
जयप्रकाश जी से संबंध 40-45 वर्ष पुराने हुए। कभी वे एक लेखक संगठन के स्थानीय सचिव और मैं उसका स्थानीय अध्यक्ष हुआ करते थे। तब कई बार विपरीत स्थितियों के विरुद्ध खड़े होने की उनकी दृढ़ता और संगठन-क्षमता का मुझे भान हुआ। वे बड़ी-बड़ी समस्याओं को शान्ति से निपटा देते थे, लेकिन यथासंभव वे लोगों से अपने पुराने संबंधों को बिगड़ने नहीं देते थे। उनके मित्रों की संख्या विशाल थी क्योंकि उनकी नज़र मित्रों की कमियों, कमज़ोरियों पर कम जाती थी। अभी उनके देहान्त के बाद फेसबुक पर मैंने उनके लिए लगभग 700 लोगों की श्रद्धांजलियां देखीं।
मैंने पाया कि पांडेय जी बड़े स्वाभिमानी थे। व्यर्थ में किसी के सामने झुकना उन्हें पसन्द नहीं था। अपने सम्मान के प्रति वे सचेत रहते थे। वे वैज्ञानिक सोच वाले थे। अंधविश्वासों, ढकोसलों के फेर में नहीं पड़ते थे।
जयप्रकाश जी सहज ही मित्रों का उपकार करते थे। मैं लगातार अपनी जन्मतिथि को छिपाता रहा क्योंकि मैं आत्मप्रचार को पसन्द नहीं करता, लेकिन पचासी पर पहुंचने पर उन्होंने मुझे पकड़ लिया और अपने निवास पर आयोजन कर डाला। उन्होंने मेरे ऊपर एक 80-85 पेज की टाइप्ड पुस्तिका निकाल दी जिसमें कई लोगों से लेख मंगवाकर शामिल किये। ऐसे ही मेरे एक व्यंग्य- संग्रह का विमोचन अपने निवास पर कर डाला। पत्रिकाओं में मुझसे पूछे बिना ही वे मेरी रचनाएं भेज देते थे। लोकप्रिय पत्रिका ‘अट्टहास’ के अक्टूबर 24 के अंक के अतिथि संपादक के रूप में उन्होंने जबलपुर के कई व्यंग्यकारों की रचनाएं छापीं। उसमें मेरी एक रचना मुझसे मांगे बिना ही भेज दी। बाद में दिसंबर अंक के लिए भी मेरी एक रचना भेज दी।
जबलपुर में ‘व्यंग्यम’ समूह की अधिकतर बैठकें उन्हीं के निवास पर हुईं जहां वे उपस्थित लेखकों की पूरी खातिरदारी करते थे। बीमारी के दौर में भी उनकी इच्छा पर यह सिलसिला चलता रहा। बीमारी को पराजित करने की उन्होंने पूरी कोशिश की, लेकिन अंततः बीमारी उन पर हावी हो गयी और हमने अपने बहुत प्यारे मित्र और समाज ने एक बहुत मूल्यवान व्यक्ति को खो दिया।
पांडेय जी के द्वारा छोड़े गये शून्य के मद्देनज़र मुझे शायर निदा फ़ाज़ली का शेर याद आता है—
‘उसको रुख़सत तो किया था, मुझे मालूम न था,
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला।’
डॉ कुंदन सिंह परिहार
59, नव आदर्श काॅलोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर – 2
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈