श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जय प्रकाश पाण्डेय: मेरे भाई, सहकर्मी, और साहित्यिक मित्र ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट 

जय प्रकाश पांडेय अंततः चले ही गए। अचानक नहीं गए, धीरे-धीरे जाते रहे। प्रतिदिन अपडेट मिलते थे। वे काफी समय से अस्वस्थ चल रहे थे और उनके हालचाल ठीक नहीं थे। पूछने पर गोलमोल उत्तर देते रहे। कल जब वो चले गए तो सब कुछ शून्य-सा हो गया। काफी देर तक कुछ सूझ ही नहीं रहा था। बस एक शांतता। एक वैराग्य भाव।

इसी वर्ष, मार्च-अप्रैल में, मैं उत्तराखंड भ्रमण के लिए गया हुआ था। उस दिन मैं मुनस्यारी से रानीखेत की ओर जा रहा था। रास्ते में, जयप्रकाश का फोन आया, “आप कहां हैं इस समय? वहां से जिम कार्बेट नेशनल पार्क कितनी दूर है? वहां मेरे एक अच्छे मित्र हैं, बहुत अच्छे इंसान हैं, आप ही की तरह। वो भी बिष्ट ही हैं। आपके कॉर्बेट भ्रमण की बढ़िया व्यवस्था कर देंगे। मैं उनसे कहता हूं। “

उनके सौजन्य से अति उत्तम व्यवस्था भी हो गई। लौटे, तो उन्होंने पूछा कि लगभग कितना खर्च आता है वहां का। इस वर्ष, वहां जाने का उनका मन था!

मेरा उनसे परिचय लगभग पचास वर्ष पुराना है। वर्ष 1975 से। तब मैं जबलपुर विश्वविद्यालय के रसायन-शास्त्र विभाग में स्नातकोत्तर कक्षा के फाइनल ईयर में पढ़ रहा था। वो प्रीवियस ईयर में आए। कालांतर में, वे मित्र से ज्यादा भाई की तरह हो गए। उनमें आत्मीयता बहुत थी।

संयोगवश, हम दोनों ने भारतीय स्टेट बैंक ज्वॉइन किया। अनेक बार सहकर्मी बनकर साथ-साथ काम करने का अवसर मिला।

वर्ष 1990-91 के आसपास की बात है। कादम्बिनी पत्रिका ने अखिल भारतीय व्यंग्य कथा प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें मेरी एक रचना पुरस्कृत हुई। जयप्रकाश मुझसे पत्रिका से प्राप्त पत्र मांगकर ले गए। एक प्रेस विज्ञप्ति बनाई और दैनिक भास्कर में स्वयं पहुंचाकर आए। इस प्रसंग का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं ताकि पाठक समझ सकें कि आयोजनधर्मी जयप्रकाश जी की कार्यशैली किस प्रकार थी।

परसाई जी के जन्मदिन के अवसर पर, लगभग उन्हीं दिनों, उन्होंने एक भव्य आयोजन लगभग अपने ही दम पर सफलतापूर्वक आयोजित किया था। इस प्रसंग की चर्चा खुद परसाई जी ने भी अपने एक लेख में की है। उन्होंने मना किया था, पर जयप्रकाश कहां मानने वाले थे!

मेरे पहले व्यंग्य-संग्रह की भूमिका हेतु वे ही मुझे डॉ कुंदन सिंह परिहार के पास ले गए थे। ‘पहल’ के आयोजन के अंतर्गत, मेरी पहली पुस्तक का ज्ञानरंजन जी के द्वारा विमोचन का श्रेय भी भाई राजेंद्र दानी और उनको जाता है।

जयप्रकाश जी दूसरों के लिए आयोजन करने में काफी समय और ऊर्जा खर्च करते रहे। समझाने पर भी उन्होंने अपने लेखन की ओर गंभीरता से कोई तवज्जो कभी नहीं दी। अब उनके लेखन का मूल्यांकन तो आलोचक ही करेंगे, मेरी क्या बिसात? लेकिन मैं इतना अवश्य कहूंगा कि उनमें जितनी गहरी संवेदना और परख थी, उसके मद्देनजर उनके समक्ष असीम संभावनाएं थीं। उन्होंने कितना लिखा, कितना न्याय किया, यह तो केवल उन्हीं को मालूम होगा। भोले बनकर, मंद-मंद मुस्कुराते हुए, अपने मन की करते जाना ही उनकी प्रवृत्ति थी, यही उनकी प्रकृति थी।

वे हमसे दूर चले गये हैं जहां न कोई दर्द है, न कोई पीड़ा। कोई बंधन नहीं, वहां पूर्ण स्वतंत्रता है। वहां भी उन्होंने अब तक कोई बड़े आयोजन की तैयारी शुरू कर ही दी होगी, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है!

उन्हें हृदय से मेरी अश्रुपूरित, विनम्र श्रद्धांजलि। ॐ शांति, शांति, शांति!

श्री जगत सिंह बिष्ट

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments