डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जयप्रकाश पांडेय जी का यूँ चले जाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆
मैं जब तक अपने ये विचार फेसबुक पर पोस्ट कर रहा हूँगा तब तक जयप्रकाश पांडेय जी का पार्थिव शरीर चिता की लपटों में राख बन गया होगा…
जाने क्यूँ इक ख़याल सा आया
मैं न हूँगा तो क्या कमी होगी
ख़लील-उर-रहमान आज़मी की इन पंक्तियों ने मुझे झकझोरकर रख दिया। रह-रहकर मुझे जयप्रकाश पांडेय जी की याद सताने लगी। उनके पार्थिव शरीर के जलने की कल्पना मुझे व्यथित कर रही है। जी हाँ, मुझे जयप्रकाश पांडेय जी की कमी बड़ी खल रही है।
“व्यंग्य की नगरी का एक दीप बुझ गया
वह हँसता-मुस्कुराता चेहरा न जाने कहाँ गया
परसाई की नगरी जबलपुरवासी जय प्रकाश पांडेय जी का स्वर्गवास समकालीन हिंदी व्यंग्य साहित्य के लिए वह अपूरणीय क्षति है, जिसे शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है। ऐसा लगता है मानो व्यंग्य आंगन का दुलारा हमें छोड़कर चला गया है। उनकी लेखनी की धार, उनके शब्दों का जादू और उनकी सादगी भरी शख्सियत ने न जाने कितने साहित्य प्रेमियों के दिलों को छुआ।
हरिशंकर परसाई जी जैसे महान साहित्यकार की रचनाओं में जय प्रकाश पांडेय जी का नाम उल्लिखित होना, उनके लिए किसी सौभाग्य से कम नहीं था। लेकिन पांडेय जी ने इस सौभाग्य को केवल स्वीकारा ही नहीं, बल्कि इसे अपनी जिम्मेदारी समझकर समकालीन हिंदी व्यंग्य साहित्य में अपनी महत्वपूर्म उपस्थिति दर्ज कराई।
इसी वर्ष 10 अप्रैल को जब हरिशंकर परसाई जी का मकान ढहा दिया गया, तो उस घटना ने व्यंग्य साहित्य प्रेमियों के दिलों को झकझोर कर रख दिया। पांडेय जी इस पीड़ा को अपनी पीड़ा मानते हुए सोशल मीडिया पर इस घटना को प्रमुखता से उठाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उनका कहना था कि परसाई का नाम लेने मात्र से कुछ नहीं होता, उन्हें जीने की कोशिश करना असली परसाइयत है। इसी कड़ी में मध्य प्रदेश के द क्लिफ न्यूज अंग्रेजी अखबार ने इस खबर को प्रमुखता से प्रकाशित किया। राज्य सरकार का संस्कृति विभाग निरुत्तर हो गया, लेकिन पांडेय जी के प्रयासों ने यह साबित कर दिया कि साहित्यकार केवल लेखनी से ही नहीं, अपने कर्मों से भी समाज को दिशा देते हैं।
जय प्रकाश पांडेय जी ने देशभर के बड़े साहित्यकारों को इस मुहिम में जोड़ा। आदरणीय प्रेम जनमेजय जी, विष्णु खरे जी, ज्ञानरंजन जी, रमेश सैनी जी, सुभाष चंदर जी, रमेश तिवारी जी, कुंदन परिहार जी और स्वयं पांडेय जी ने इस घटना की कड़ी भर्त्सना की। यहां तक कि जापान से पद्मश्री तोमियो मिजोकामी जी भी इस आंदोलन का हिस्सा बने। यह उनकी दूरदृष्टि और अथक प्रयासों का परिणाम था कि परसाई जी की स्मृति रूपी धरोहर को बचाने की मुहिम ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई।
जय प्रकाश पांडेय जी केवल व्यंग्यकार नहीं थे, बल्कि व्यंग्य की धरोहर को बचाने वाले सच्चे सिपाही भी थे। उनकी लेखनी में समाज के हर पहलू को सजीव रूप में प्रस्तुत करने की कला थी। वे विसंगतियों के माध्यम से समाज की गहराईयों को छूने में सक्षम थे। उनके शब्द न केवल चोट करते थे, बल्कि सोचने पर मजबूर भी कर देते थे।
जय प्रकाश पांडेय जी का व्यक्तित्व बेहद सरल, मिलनसार और प्रभावशाली था। उनकी आवाज में अपनापन और उनके विचारों में गहराई थी। वे मुझसे घंटों फोन पर बात करते और कहते, “उरतृप्त जी, आपकी लेखनी का मैं बड़ा प्रशंसक हूं। ” उनकी प्रशंसा न केवल प्रेरणा देती थीं, बल्कि आगे बढ़ने का हौसला भी।
उनसे मेरी दो बार भेंट हुई थी। पहली बार दिल्ली में व्यंग्ययात्रा सम्मान के दौरान और दूसरी बार रायपुर में महेंद्रसिंह ठाकुर द्वारा आयोजित सम्मान कार्यक्रम में। हर बार उनकी सादगी और बौद्धिक गहराई ने मन को छू लिया। उनका स्नेह और उनका मार्गदर्शन हमेशा याद रहेगा।
आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तो ऐसा लगता है मानो हिंदी व्यंग्य लोक का एक सितारा टूट गया हो। उनका जाना व्यंग्य प्रेमियों के लिए किसी असहनीय पीड़ा से कम नहीं है। उनकी हंसी, उनका व्यंग्य, और उनकी लेखनी हमें हमेशा उनकी याद दिलाती रहेगी।
“अलविदा कह गए, दिल को तोड़ गए,
साहित्य के आंगन में हमें अकेला छोड़ गए। “
जय प्रकाश पांडेय जी के योगदान को शब्दों में समेटना असंभव है। उनका नाम हिंदी व्यंग्य में हमेशा याद किया जाएगा। उनके विचार, उनकी लेखनी और उनकी यादें हमें सदैव प्रेरित करती रहेंगी।
“अब रह गई बस यादें, और अश्रुधारा,
पांडेय जी, आप थे हमारी आँखों का तारा। “
उनकी आत्मा को शांति मिले और हम सभी को उनकी लेखनी और विचारों से प्रेरणा लेकर उनके अधूरे सपनों को पूरा करने का साहस मिले। जय प्रकाश पांडेय जी, आप हमेशा हमारे दिलों में जिंदा रहेंगे।
अंत में अहमद आमेठवी के शब्दों में –
ज़िंदगी है अपने क़ब्ज़े में न अपने बस में मौत
आदमी मजबूर है और किस क़दर मजबूर है
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
हैदराबाद
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈