सौ. सुजाता काळे
(सौ. सुजाता काळे जी के हम आभारी हैं जिन्होने हमारे आग्रह को स्वीकार कर “साप्ताहिक स्तम्भ – कोहरे के आँचल से ” शीर्षक प्रारम्भ करना स्वीकार किया। सौ. सुजाता जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं । वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं। उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की ऐसी ही एक प्राकृतिक आपदा पर आधारित भावप्रवण कविता ‘बह गई तोड़ के बंधन ’।)
☆ बह गई तोड़ के बंधन ☆
सालों जो बँधी हुई थी
दो पाटल के धारों में
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।
हाहाकार मचाया उसने
राहों में चौराहों में,
उद्दंड़ बनकर बह गई माता
गोद लिए खलियानों में।
हुआ अनर्थ, अनर्थ यह भारी
देख दृश्य यह आँखों ने।
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।
धूम मचाई घर नगर में उसने
संसार सभी के ध्वस्त किए।
कहीं गिरि को भेदती निकली
कहीं सागर से गले मिले।
जो जो मिला राह में उसको
सब आँचल में छुपा लिया।
चल अचल को ध्वंस करती
हिलोरें लेकर बहा दिया।
स्नेहाशीष का आँचल क्यों
फिर सरकाया है माँ ने,
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।
© सुजाता काळे …
पंचगनी, महाराष्ट्र।
9975577684
धन्यवाद सर, आपने मेरे शब्दों को वाणी दी हैं ।