सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “बारिश”। )
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 54 ☆
फिर वही खिलते हुए गुल,
फिर वही गीत गाती कोयल,
फिर वही बारिश,
फिर मेरा वो भीग जाने को मचल जाना
और फिर वही बूंदों में
किसी हमख़याल का अक्स…
बाहर बगीचे में निकली
तो बादल रुखसत ले ही रहे थे,
पर कुछ आखिरी बूँदें मेरे लब पर ठहर गयी
और मुझे मुहब्बत से भिगोने लगीं
और झाँकने लगा उससे वो अक्स…
मैंने मुस्कुराते हुए
लबों से उन बूंदों को हटा दिया,
कि मुहब्बत से लबरेज़ होने के लिए
नहीं थी ज़रूरत मुझे
या ही बूंदों की या ही बारिश की…
इंसान को बनाते वक़्त
ईश्वर मुहब्बत के पैग़ाम तो
यूँ ही उसके ज़हन में भर देता है,
पर उस राज़ से कुछ अनजान से
हम खोजते रहते हैं उसे यहाँ-वहाँ!
मेरा अब इस पैग़ाम से
यूँ रिश्ता बन गया था
कि जिगर में मेरे जब चाहूँ
बारिश हो जाया करती थी!
बगीचे की बारिश तो मात्र एक बहाना थी
खुश होने का!
असली बारिश तो गिरती ही रहनी चाहिए
जिगर के हर ज़रीन कोने में!
© नीलम सक्सेना चंद्रा
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈