श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना तू भी वही, मैं भी वही…..। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य # 67 ☆
☆ तू भी वही, मैं भी वही….. ☆
तू भी वही, मैं भी वही
उस परम के सब अंश हैं
फिर क्यों कोई बगुले हुए हैं
और, कोई हंस हैं।
है ध्येय, सब का एक ही
सौगात खुशियों की मिले
क्यों अलग पथ अरु पंथ हैं
है परस्पर, शिकवे-गिले,
वसुदेव जैसे, है जहाँ
तो क्यों, वहीं पर कंस हैं।
तू भी वही …….
है पंचतत्वों का घरोंदा
इंद्रियाँ सब की वही
नवद्वार, विविध विकार हैं
कोई कहीं, कोई कहीं,
सब ब्रह्म की संतान तो
फिर क्यों अलग ये वंश हैं।
तू भी वही ……
संस्कारवश ये हैं अगर
प्रारब्ध भी यदि मान लें
सत्कर्म से बंधन कटे
दुष्कर्म बंधन बांध लें,
है ज्ञान,तप सेवा जहाँ
क्यों कुटिलता के दंश हैं।
तू भी वही…..
विस्तार व्यापक हो रहा
है ज्ञान औ’ विज्ञान का
चिंतन मनन से विमुख सा
मन भ्रमित है इंसान का,
गर नव सृजन निर्माण है
फिर क्यों वहीं विध्वंस है।
तू भी वही….
© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश
मो. 9893266014
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈