डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक  अतिसुन्दर लघुकथा   ‘कचरे वाला’।  इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 71 ☆

☆ लघुकथा – कचरे वाला

शरीफों का मुहल्ला है। रोज़ तड़के कचरा इकट्ठा करने वाला,अपनी गाड़ी खींचता, सीटी बजाता हुआ आता है। सब अपने अपने घर से प्रकट होकर कचरा-दान करते हैं और राहत की साँस लेते हैं।

नन्दी जी तुनुक मिजाज़ हैं। घर में थोड़ी थोड़ी बात पर भड़कते हैं। सफाई-पसन्द हैं। कचरे वाले को देखकर उनका माथा चढ़ता है। कचरे के डिब्बे में दूर से कचरा टपकाते हैं। मास्क के ऊपर से सिकुड़ी नाक नज़र आती है। देखकर कचरे वाले  का मुँह बिगड़ता है। कई बार कह देता है, ‘आप ही का कचरा है। हमारे घर का नहीं है।’

एक दिन नन्दी जी उससे उलझ गये। उसने गीला और सूखा कचरा अलग अलग डिब्बों में डालने को कहा तो वे उखड़ गये—-‘हम यही करते रहेंगे क्या? दूसरा काम नहीं है? पहले क्यों नहीं बताया?’

थोड़ी बहस हो गयी। अन्त में नन्दी जी उँगली उठाकर बोले, ‘ऑल राइट, आप कल से हमारे घर से कचरा नहीं लेंगे। आई विल मैनेज इट। ‘ कचरे वाला ‘ठीक है’ कह कर आगे बढ़ गया।

भीतर आकर बोले, ‘मैं कर लूँगा। जब वह कर सकता है तो हम क्यों नहीं कर सकते?’

मिसेज़ नन्दी अपने पति को जानती थीं, इसलिए कुछ नहीं बोलीं।

दूसरी सुबह कचरे वाला घर के सामने से निकल गया। रुका नहीं। नन्दी जी घर में बैठे रहे। बुदबुदाये, ‘मिजाज़ दिखाता है!आई विल डू इट।’

घर में तीन दिन का कचरा इकट्ठा हो गया। अब सबकी नाक सिकुड़ने लगी। सबकी नज़रें नन्दी जी पर टिकने लगीं। नन्दी जी सबसे नज़र बचाते फिर रहे थे।

चौथे दिन वे तैयार हुए। स्कूटर पर कचरे की दो बकेट रखीं और आगे बढ़े। तिरछी नज़रों से देखते जा रहे थे कि कोई परिचित देख तो नहीं रहा है। भीतर से सिकुड़ रहे थे।

लंबे निकल गये, लेकिन कोई कचरे का कंटेनर नहीं दिखा। परेशान हो गये। सड़क के किनारे फेंकने पर कोई भी चार बातें सुना सकता था। आगे कुछ खेत थे। वहीं स्कूटर रोक कर चारों तरफ देखा, फिर पौधों के बीच में बकेट खाली करके भाग खड़े हुए।

घर पहुँचकर लंबी साँस लेते हुए पत्नी से बोले, ‘आई कान्ट डू इट। इट इज़़ वेरी डिफ़ीकल्ट।’

अगली सुबह जब कचरे वाला आया तब मिसेज़ नन्दी गेट पर थीं। उसे रोककर बोलीं, ‘कचरा लेना क्यों बन्द कर दिया, भैया?’ कचरे वाला कैफ़ियत देने लगा तो थोड़ी देर सुनकर बोलीं, ‘वे थोड़ा गुस्सैल हैं। क्या करें। आप खयाल मत करो। आगे से कचरा हमीं दिया करेंगे। यह थोड़ा सा प्रसाद है, बच्चों को दे देना।’

भीतर नन्दी जी मुँह पर दही जमाये बैठे थे। मिसेज़ नन्दी कचरा देकर लौटीं तो सबके चेहरे पर राहत का भाव आ गया। मुसीबत टल गयी थी। सुबह सुहावनी हो गयी थी।

©
डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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विजय तिवारी " किसलय "

स्वभावतः उम्र के साथ व्यवहारिक गुणों में कुछ अच्छे व कुछ रूखे गुणों में बदलाव होना हमारे समाज में दिखता ही है, इसके मात्र बुजुर्ग ही नहीं समाज, सामाजिक व्यवस्थाएँ, बदलते सामाजिक परिवेश, उनकी अनुकूलता एवं उनकी संतुष्टि का भी न होना है।
पता नहीं क्यों इनके दीर्घजीवी पारिवारिक व सामाजिक अनुदान का उपफल हमारा सामाज उनकी अपेक्षा के अनुरूप नही दे पाता, हम उनके द्वारा किये गए कुछ ”अपने नापसंद व्यवहारों” को नज़र अंदाज़ नहीं कर पाते। शायद यहीं से उनकी असंतुष्टि प्रारम्भ होती है।