श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है ।
प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री अलका अग्रवाल सिगतिया जी ( मुंबई ) एवं श्री शशांक दुबे जी ( मुंबई ) के प्रश्नों के उत्तर । )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 68 ☆
☆ आमने-सामने – 4 ☆
अलका अग्रवाल सिगतिया (मुंबई) –
प्रश्न-
आपने परसाईं जी का साक्षात्कार भी किया है।
उस साक्षात्कार के अनुभव क्या रहे?
आज यह कहा जा रहा है, व्यंग्यकार खुल कर नहीं लिख रहे,अक्सर व्यंग्य चर्चाओं में बहस छोड़ रही है ।
कितने सहमत हैं, आप?
क्या अभिव्यक्ति के खतरे पहले नहीं थे?
आपके लेखन में आप इसे कितना उठाते हैं, या स्टेट बैंक के मुख्य प्रबंधक पद पर रहकर उठाए?
परसाई जी से आप अपने लेखन को लेकर चर्चा करते थे?
जय प्रकाश पाण्डेय –
अलका जी की कहानियां हम 1980 से पढ़ रहे हैं, कहानियां मासिक चयन (भोपाल) पत्रिका में हम दोनों अक्सर एक साथ छपा करते थे। उन्हें परसाई जी का आत्मीय आशीर्वाद मिलता रहा है।
वे परसाई जी के बारे में सब जानतीं हैं। पर चूंकि प्रश्र किया है इसलिए थोड़ा सा लिखने की हिम्मत बनी है।
सुंदर नाक नक्श, चौड़े ललाट,साफ रंग के विराट व्यक्तित्व परसाई जी से हमने इलाहाबाद की पत्रिका कथ्य रूप के लिए इंटरव्यू लिया था। हमने उनकी रचनाओं को पढ़कर महसूस किया कि उनकी लेखनी स्याही से नहीं खून से लेख लिखती थी, व्यंग्य करती थी और हृदय भेदकर रख देती थी। परसाई जी से हमारे घरेलू तालुकात थे, ऐसे विराट व्यक्तित्व से इंटरव्यू लेना बड़े साहस का काम था। इंटरव्यू के पहले परसाई जी कुछ इस तरह प्रगट हुए जैसे अर्जुन के सामने कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया था। उनके विराट रूप और आभामंडल को देखकर हमारी चड्डी गीली हो गई, पसीना पसीना हो गये क्योंकि उनके सामने बैठकर उनसे आंख मिलाकर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं हुई, तो टेपरिकॉर्डर छोटा था हमने बहाना बनाया कि टेपरिकॉर्डर पुराना है आवाज ठीक से रिकार्ड नहीं हो रही और हमने उनके सिर के तरफ बैठकर सवाल पूछे। परसाई जी पलंग पर अधलेटे जिस ऊर्जा से बोल रहे थे, हम दंग रह गए थे।
हमारा सौभाग्य था कि हमारी पहली व्यंग्य रचना परसाई ने पढ़ी और पढ़कर शाबाशी दी, और लगातार लिखते रहने की प्रेरणा दी।
आजकल बहुत से व्यंंग्यकार खुल कर नहीं लिख रहे हैं, इस बारे में आदरणीय शशांक दुबे जी के उत्तर में स्पष्ट कर दिया गया है।
श्री शशांक दुबे (मुंबई) –
पाण्डेय जी आपको व्यंग्य के बहुत बड़े हस्ताक्षर हरिशंकर परसाई जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। परसाई जी के दौर के व्यंग्यकारों के बौद्धिक व रचनात्मक स्तर में और आज के दौर के व्यंग्यकारों के स्तर में आप कोई अंतर देखते हैं?
जय प्रकाश पाण्डेय –
आदरणीय भाई दुबे जी, वास्तविकता तो ये है कि जब परसाई जी बहुत सारा लिख चुके थे, उन्होंने 1956 में वसुधा पत्रिका निकाली, उसके दो साल बाद हमारा धरती पर आना हुआ। बड़ी देर बाद परसाई जी के सम्पर्क में आए 1979 से। पर हां 1979से 1995 तक उनका आत्मीय स्नेह और आशीर्वाद मिला।
परसाई और जोशी जी के दौर के व्यंंग्यकार त्याग, तपस्या, संघर्ष की भट्टी में तपकर व्यंग्य लिखते थे,उनका जीवन यापन व्यंग्य लेखन से होता था, उनमें सूक्ष्म दृष्टि, गहरी संवेदना, विषय पर तगड़ी पकड़ के साथ निर्भीकता थी ।आज के समय के व्यंग्यकारों में इन बातों का अभाव है। परसाई जी, जोशी जी के दिमाग राडार के गुणों से युक्त थे,वे अपने समय के आगे का ब्लु प्रिंट तैयार कर लेते थे, उन्हें पुरस्कार और सम्मान की भूख नहीं थी। बड़े बड़े पुरस्कार उनके दरवाजे चल कर आते थे।आज के अधिकांश व्यंग्यकार अवसरवादी, सम्मान के भूखे, पकौड़े छाप जैसी छवि लेकर पाठक के सामने उपस्थित हैं और इनके अंदर बर्र के छत्ते को छेड़ने का दुस्साहस कहीं से नहीं दिखता।
क्रमशः …….. 5
© जय प्रकाश पाण्डेय