श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “बदलापुर की गाथा”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 41 – बदलापुर की गाथा ☆

बड़े घमंड के साथ, प्रचार – प्रसार द्वारा लगभग लाखों सब्सक्राइबर बना लिए,  पर जब भी कोई पोस्ट करते तो बस दस पन्द्रह लाइक ही झोली में आते हैं, अब तो बदलू जी परेशान रहने लगे। हद तो तब हो गयी जब वे बदलापुर के लिए निकल पड़े तो उनके दो अनुयाई भी उनका साथ न देकर,  नए नेता की ओर चल दिये। लोटा और पेंदी का साथ बहुत अच्छी बात है,  पर जब दोनों अलग हो जाएँ तो बिन पेंदी का लोटा लुढ़कता ही है।

इसी सब में क्षमा के गुणों की चर्चा भी चल निकली। ‘क्षमा वीर आभूषण’ होता कहना और सुनना तो सरल होता है पर जब किसी को क्षमा करना हो तो अहंकार आड़े आ ही जाता है। वो तो भला हो वीरचंद्र का जो सबको संमार्ग  ही दिखाते हैं। उन्होंने ने न जाने कितने लोगों को माफ किया और आगे बढ़ चले। सच ही कहा गया है। सिर पर ज्यादा बोझ हो तो चलना मुश्किल होता है ।

मजे की बात ये है कि अधिकांश लोग पूर्वाग्रही होते हैं। वे एक ही रंग का चश्मा पहन कर दुनिया को बदलने चल पड़ते हैं। अरे भई जब तक स्वयं को नहीं बदलोगे तब तक कुछ भी बदलने से रहा। कब तक कुएँ के मेढ़क की तरह उछल कूद करते रहोगे। कभी नदी का सफर भी करो। कैसे वो प्रपात बनाती हुई चलती है। तट का पहरा अवश्य ही उसके ऊपर रहता है। पर अपने लक्ष्य को साधकर आगे बढ़ने में उसे महारत हासिल होती है। सागर में समाहित होकर भी अपना अस्तिव व पहचान बनाए रखती है। उद्गम से चलते हुए न जाने कितनी बाधाओं को पार करना पड़ता है। कई छोटी – बड़ी नदियों के साथ संगम बनाती हुई,  रास्ते के कूड़े- करकट, नालियों का पानी सबको आत्मसात कर निरंतर चरैवेति – चरैवेति के सिद्धांत पर अड़िग होकर बढ़ती जाती है ।

सिक्के के एक पहलू से दूसरे पहलू की मित्रता कभी हो ही नहीं सकती ये तो दिन- रात की भांति दिखते हैं। कभी हेड तो कभी टेल बस जिस नज़र से दिखेंगे वही दिखेगा। यहाँ फिर से बात नजरिए पर आ टिकी,  सोच बदलो जीवन बदल जायेगा। ये बदलाव भी आखिर क्या चीज है। बदलू जिसे अपनाकर इतिहास रच रहा है। बदला लेने के लिए लोग क्या- क्या नहीं कर बैठते। औरंगजेब को देखिए उसने तो बदले की सभी हदें पार कर दी थीं । अपने पिता शाहजहां को बूंद- बूंद पानी के लिए तरसा दिया था। जरा सोचिए हमारी परंपरा तो प्याऊ लगवाने की रही है वहाँ ऐसा घोर अनाचार,  आखिर ये भी तो बदलापुर की बदलागिरी ही लगती है ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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