श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “न्याय ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11☆

 

☆ न्याय ☆

 

“तेरे पिता ने कहा था कि मेरे जीते जी बराबर बंटवारा कर ले तब तू ने कहा था ,’ नहीं बाबूजी ! अभी काहे की जल्दी है ?’ अब उन के मरते ही तू चाहता है की बंटवारा हो जाए ?” माँ ने पूछा तो रवि ने जवाब दिया ,” माँ ! उस समय मोहन खेत पर काम करता था.”

“और अब ?”

“उसे पिताजी की जगह नौकरी मिल गई . इसलिए बंटवारा होना ज्यादा जरुरी है ?”

“ठीक है ,” कहते हुए माँ ने मोहन को बुला लिया ,” आज बंटवारा कर लेते है.”

“जैसी आप की मर्जी माँ ?” मोहन ने कहा और वही बैठ गया .

“इस मकान के दो कमरे तेरे और दो कमरे इसके. ठीक है ?”

दोनों ने गर्दन हिला दी.

“अब  खेत का बंटवारा कर देती हूँ,” माँ ने कहा,” चूँकि मोहन को पिता की जगह  नौकरी मिली है, इसलिए पूरा पांच बीघा खेत रवि को देती हूँ.”

“यह तो अन्याय है मांजी ,” अचानक मोहन की पत्नि के मुंह से निकल, ” इन्हों ने मेहनत कर के पढाई की और इस लायक बने की नौकरी पा सके. इस की तुलना खेत से नहीं हो सकती है. यदि रवि जी पढ़ते तो ये नौकरी इन को मिलती.”

“मगर बहु ,यह तो एक माँ का न्याय है जो तुझे भी मानना पड़ेगा”, सास ने कहा .

इधर मोहन कभी माँ को, कभी रवि को और कभी अपनी पत्नी को निहार रहा था .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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