श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 70 – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप – 3 

तीसरा शब्द-दीप

आज भाईदूज है। प्रातःभ्रमण पर हूँ। हर तरफ सुनसान, चुप। दीपावली के बाद शहर अलसाया हुआ है। सोसायटी का चौकीदार भी जगह पर नहीं है। इतनी सुबह दुकानें अमूमन बंद रहती हैं पर अख़बार वालों, मंडी की ओर जाते सब्जीवालों, कुछ फलवालों, जल्दी नौकरी पर जाने वालों और स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों से सड़क ठसाठस भरी रहती है। आज सार्वजनिक छुट्टी है। नौकरीपेशा, विद्यार्थी सब अपने-अपने घर पर हैं। सब्जी मंडी भी आज बंद है। अख़बारों को कल छुट्टी थी। सो आज अख़बार विक्रेता भी नहीं हैं। वातावरण हलचल की दृष्टि से इतना शांत जैसे साइबेरिया में हिमपात के बाद का समय हो।

वातावरण का असर कुछ ऐसा कि लम्बे डग भरने वाला मैं भी कुछ सुस्ता गया हूँ। डग छोटे हो गये हैं और कदमों की गति कम। देह मंथर हो तो विचारों की गति तीव्र होती है। एकाएक इस सुनसान में एक स्थान पर भीड़ देखकर ठिठक जाता हूँ। यह एक प्रसिद्ध पैथालॉजी लैब का सैम्पल कलेक्शन सेंटर है। अलसुबह सैम्पल देने के लिए लोग कतार में खड़े हैं। उल्लेखनीय है कि इनमें वृद्धों के साथ-साथ मध्यम आयु के लोग काफी हैं। मुझे स्मरण हो आता है, ‘ शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धनसम्पदा।’

सबसे बड़ी सम्पदा स्वास्थ्य है। हम में से अधिकांश  अपनी जीवन शैली और लापरवाही के चलते प्रकृति प्रदत्त इस सम्पदा की भलीभाँति रक्षा नहीं कर पाते हैं। चंचल धन और पार्थिव अधिकार के मद ने आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम त्योहार या उत्सव की मूल परम्परा ही भुला बैठे हैं। आद्य चिकित्सक धन्वंतरी की त्रयोदशी को हमने धन की तेरस तक सीमित कर लिया। रूप की चतुर्दशी, स्वरूप को समर्पित कर दी। दीपावली, प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने, मूल्यों की विजय एवं अर्चना का प्रतीक न होकर केवल द्रव्यपूजन का साधन हो गई।

उत्सव और त्योहारों को उनमें अंतर्निहित उदात्तता के साथ मनाने का पुनर्स्मरण हमें कब होगा? कब हम अपने जीवन के अंधकार के विरुद्ध एक दीप प्रज्ज्वलित करेंगे? जिस दिन एक भी दीपक सुविधा के अर्थ के अंधेरे के आगे सीना ठोंक कर खड़ा हो गया, यकीन मानिये, अमावस्या को दीपावली होने में समय नहीं लगेगा।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Rita Singh

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, आपका अवलोकन हमेशा ही मार्गदर्शन कारनेवाला होता है।