श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “जोर लगाकर हईशा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 42 – जोर लगाकर हईशा… ☆
एकता और शक्ति कार्यक्रम में शक्ति का प्रदर्शन चल रहा था। सभी से एकता बनाए रखने की अपील की जा रही थी। पर एकता के तो भाव ही नहीं मिलते हैं। एक- एक मिलकर ग्यारह तो हो सकते हैं। एक- एक जल की बूंद से सागर भर सकता है। एक – एक लकड़ी मिलकर बड़ा सा गट्ठर बना सकती है, पर प्रत्येक व्यक्ति के विचारों को एकता के सूत्र में बाँधकर रहना बहुत मुश्किल होता है ।
हर व्यक्ति अपनी ही जीत चाहता है। जिसके लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगाकर गुटबाजी करने से भी नहीं चूकता है। एकता का जाप करते हुए मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा का गीत अवश्य ही उसका नारा होता है। परंतु कथनी और करनी का भेद यहाँ भी टपक पड़ता है। जिस तरह रस्सी खींच प्रतियोगिता में दो गुट बनाकर , दोनों ओर बराबर संख्या में प्रतिभागी होते हैं। वैसा ही किसी भी आयोजन में देखा जाता है। यहाँ लोग पुरानी बातों को एक – एक कर खोलने लगते हैं ताकि सामने वाले का मनोबल कम हो जाए। पर लोगों ने भी कोई कच्ची गोटियाँ नहीं खेली होती हैं। आयोजक ऐसे लोगों को चयनित ही करते हैं। जो आकर्षण के सिद्धांत का पालन करते हुए ही नीतियाँ बनाता और लागू करवाता हो।
जोर लगाकर हईशा…
इस नारे की गूँज से वातावरण गुंजायमान हो गया, सब लोग पूरे दमखम के साथ मैदान पर उतरे हुए थे। बस इंतजार था कि जिस दल की एकता भंग हुई वही चारो खाने चित्त होगा। पर इसकी यही तो खूबी है कि ये सत्ता पक्ष के साथ ही इतराती है। एकता को भी साजो शृंगार की आदत जो ठहरी , ये वहीं रुकेगी जहाँ स्थायित्व हो। प्रतियोगिता अपने चरम पर थी , दर्शकों की धड़कनें थम गयीं …अब क्या होगा , सभी की निगाहें परिणाम की ओर थीं। दोनों दल पूरे मनोयोग से रस्सी खींच रहे थे। सभी ओर एक से बढ़कर एक नीतिकार योद्धा मौजूद थे। दर्शकों ने भी गुटबाजी में अपनी भलाई समझी ,सो वे भी दो समूहों में बँट कर आंनद लेने लगे। अब तो निर्णायकों को भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। उन्होंने चारों ओर निगाहें दौड़ाई और आँखों ही आँखों में ये तय कर लिया कि यदि समय पूरा हो गया और कोई आशाजनक परिणाम नहीं मिल पाया तो इस जीत से ज्यादा फायदा जिसके द्वारा हम लोगों को मिल सकता है उसे ही विजेता बना देंगे ।
पर एकता में शक्ति होती है। सो एक समूह जो पहले से ही एकता के सूत्र की मिसाल है वो जीत ही गया क्योंकि एक – एक मोती मिलकर ही सम्पूर्ण माला को बनाते हैं ।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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