डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “उलझन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 9 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ उलझन 

 

“मैं कई दिनों से बड़ी उलझन में हूँ।  सोच रहा हूँ क्या करूँ  क्या न हूँ। आज न चाहते हुए भी आपसे कहने का साहस कर रहा हूँ क्योंकि आप माँ जैसी है आप समझोगी और रास्ता भी बताओगी।”

“क्या हुआ है तुझे, निःसंकोच बता, मैं हूँ तेरे साथ!”

“आप तो जानती हैं कि हमारी शादी को 15 वर्ष हो चुके है हमें संतान नहीं है और हमारी बीबी को कोई गंभीर बीमारी है सन्डे के दिन ये सास बहू की जाने क्या खिचड़ी पकती है और मेरा घर में रहना दूभर हो जाता है।”

“क्या करती हैं वे?”

“क्या करूं, बीबी कहती है तुम्हारी प्रोफाइल शादी डॉट कॉम में डाल दी है मैं चाहती हूँ फोन आयेंगे तो तुम लड़की सिलेक्ट कर लो और हमारे रहते शादी कर लो और माँ  का भी यही कहना है।”

“तो, तुमने क्या कहा?”

“हमने कहा यह नहीं हो सकता।  भला तुम्हारे रहते ऐसा कैसे कर सकते हैं,  तुम पागल तो नहीं हो गई हो?”

“फिर?”

“फिर क्या, वह कहती है, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती मैं तलाक दे दूंगी सामने वाले अपने दूसरे घर में रह जाऊँगी पर मैं तुम्हें खुश देखना चाहती हूँ तुम्हारे बच्चे को खिलाना चाहती हूं।”

 

“उसका कहना भी सही है।”

“पर मासी, यह समझ नहीं रही मेरे मन की हालत, इसके रहते मैं कैसे यह कदम उठा सकता हूं।”

“मेरी मानो तो एक ही सामाधान है इसका!”

“क्या?”

“मातृछाया से एक नवजात शिशु गोद ले लो!”

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची
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