डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं और स्त्री विमर्श पर आधारित उनकी लघुकथा ‘दीवार। यह आवश्यक नहीं कि गलती हमेशा छोटों से ही होती हो। कभी-कभी बड़े भी गलतियां कर बैठते हैं। ऐसे में कभी कभी सुधारने का मौका मिल जाता है तो कभी कभी नहीं भी मिल पाता। डॉ डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को स्त्री विमर्श परआधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 52 ☆
☆ लघुकथा – दीवार ☆
रात में साधना बाथरूम जाने को उठी तो उसे पता नहीं कैसे दिशा भ्रम हो गया। जब तक कुछ समझ पाती दीवार से टकराकर गिर गई। घर में वह अकेले ही थी। उसने बहुत कोशिश की उठने की लेकिन दर्द के कारण जगह से हिल भी ना पाई। दीवार के दूसरी तरफ बेटा – बहू रहते हैं, उसने आवाज लगाई, जोर से दीवार धपधपाई कि शायद कोई सुन ले, लेकिन किसी को सुनाई नहीं दिया और अंतत: वह डर और पीडा से बेहोश हो गई। जब उसे होश आया तो वह अस्पताल में बिस्तर पर लेटी थी, पास ही उसकी बहू बैठी थी। सास को होश में आते देखकर वह जल्दी से डॉक्टर को बुला लाई। डॉक्टर ने देखा और बोले – अब चिंता की कोई बात नहीं है ब्लडप्रेशर बढ गया था, अब सब ठीक है, पैर की हड्डी टूट गई है, एक महीने प्लास्टर रहेगा। जाते–जाते डॉक्टर ने कहा – अरे हाँ, इनको घर में अकेला मत छोडियेगा। जी – बहू ने सहमति में सिर हिलाया। तब तक बेटा भी वहाँ आ गया। डॉक्टर की बात बेटे ने सुन ली थी।
साधना सोच रही थी कि सब कुछ उसका ही तो किया धरा है, दोष दे भी तो किसको? वह अपने आप को कोस रही थी क्या मन में आई बेटे बहू को अलग करने की। पति ने भी बहुत समझाया था – बच्चे हैं माफ कर दो, पर वह तो अड गई थी कि बँटवारा कर दो, बडे से आँगन के बीचोंबीच दीवार बनवा कर ही मानी। सबने कितना मना किया पर उसने किसी की ना सुनी, विनाश काले विपरीत बुद्धि। किस घर में झगडे नहीं होते? ताली दोनों हाथों से बजती है सिर्फ बहू की गल्ती थोडे ही ना है। पति की मृत्यु के बाद से यह अकेला घर अब उसे खाने को दौडता है पर क्या करे? आज उसे समझ में आ रहा था कि अपने पैर पर उसने खुद ही कुल्हाडी मारी है।
कैसा लग रहा है माँ अब? – बेटे ने पूछा। कैसे गिर गईं आप? अरे वह तो अच्छा हुआ कि मैं सुबह आ गया था आपको देखने, वरना आप ना जाने कब तक बेहोश पडी रहतीं। साधना बेटे से नजरें ही नहीं मिला पा रही थी। वह हाथ जोडकर बेटे–बहू से बोली – मुझे माफ कर दो। मैंने बहुत बडी गलती की है अपने ही घर को दो टुकडों में बाँटकर। बेटे ने हँसकर कहा- अरे किस बात की माफी मांग रही हैं आप, यह भी कोई बात है क्या? जब दीवार बनाई जा सकती है तो गिराई नहीं जा सकती क्या? साधना भीगी आँखों से मुस्कुरा रही थी, उनके बीच रिश्तों की मजबूत दीवार जो बन रही थी।
© डॉ. ऋचा शर्मा
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