हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 12 – व्यंग्य – उसूलों की लड़ाई ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  व्यंग्य रचना “उसूलों की लड़ाई ”।   लड़ाई वैसे भी कोई अच्छी बात नहीं है। जुबानी लड़ाई में जुबान खराब हो जाती है, मार-पीट की लड़ाई में चोट आने का भय होता है और तरह तरह की लड़ाइयों में तरह तरह के नुकसान की संभावना होती है, जो वास्तव में अच्छी बात नहीं है। किन्तु, जब उसूलों की लड़ाई हो तो लोग अन्य लड़ाइयों की तरह तमाशा देख कर अपने अपने तरह से विचार विमर्श करते हैं, कुछ अफसोस जताते हैं तो कुछ चटखारे ले कर मजे लेते हैं पर चोट किसी को नहीं आती,  मात्र दो लोगों का अंदर ही अंदर खून जलता है और जीतता समय ही है। डॉ परिहार जी ने बड़े ही बेहतरीन तरीके से उसूलों की  सुखांत लड़ाई का वर्णन किया है। आप भी आनंद लें वैसे ऐसी लड़ाइयाँ आपके आसपास भी होती रहती है।  डॉ परिहार जी का लेखक हृदय तो पहुँच जाता है किन्तु, शायद आप कहीं चूक जाते हैं। हम आप तक ऐसा ही  उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 12 ☆

 

☆ व्यंग्य – उसूलों की लड़ाई ☆

आखिरकार बाबू गंगाराम सिमटते-सिकुड़ते, ज़िन्दगी भर पेट पर गाँठ लगाते, दफ्तर से शाल नारियल ग्रहण करके रिटायरमेंट को प्राप्त हो गये और ,जैसा कि ऐसे लोगों के साथ होता है, पेंशन की तरफ टकटकी लगाकर बैठ गये। गंगाराम अपने विभाग में सत्यवादी और सिद्धान्तवादी के रूप में जाने जाते थे, ऐसे कि लाख रुपया रख दो फिर भी भौंह में बल न पड़े।इसीलिए उनकी सिद्धान्तवादिता से नाराज़ लोग उन्हें पीठ पीछे सनकी कहते थे।

गंगा बाबू की पेंशन की फाइल पेंशन मामलों के प्रभारी और विशेषज्ञ झुन्नी बाबू के पास पहुँची। अब जैसे गंगा बाबू सिद्धान्तवादी वैसे ही झुन्नी बाबू कट्टर उसूल वाले। झुन्नी बाबू का उसूल ऐसा कि उन्होंने अपने तीस साल के सेवाकाल में कोई भी फाइल  बिना ‘दस्तूरी’ लिये नहीं निपटायी। सिर्फ शुरू के तीन महीने उन्होंने बिना दस्तूरी लिये काम किया था, लेकिन उस काल को वे ‘बिरथा’ मानते थे। उसके बाद कोई फाइल बिना दस्तूरी के नहीं निपटी।
ऐसा नहीं था कि झुन्नी बाबू पूरी तरह कठोर-हृदय ही थे। सामने वाला आदमी अगर निर्बल हो तो वे दस्तूरी में यथासंभव छूट भी दे देते थे। लेकिन उनका पक्का उसूल था कि हर काम के लिए उनके हाथ में दस्तूरी आना ही चाहिए, भले ही फिर वे एक रुपया रखकर बाकी वापिस कर दें। उनका कहना था कि वे जनता की सेवा के लिए हरदम प्रस्तुत रहते हैं, बशर्ते कि उनके उसूल पर कोई चोट न पहुँचे। कहते हैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस के हाथ में पैसा रखने पर उनके हाथ में जलन होने लगती थी। झुन्नी बाबू का हाल उल्टा था।पैसे का स्पर्श उनके शरीर और मन को भारी ठंडक पहुँचाता था।

गंगाराम बाबू की पेंशन फाइल घाट घाट होती हुई झुन्नी बाबू के पास पहुँच गयी थी। झुन्नी बाबू ने तत्काल उसका अवलोकन कर एक पत्र आवेदक को भेज दिया जिसमें लिखा गया कि छः बिन्दुओं पर जानकारी अप्राप्त थी, वह प्राप्त होने पर आगे कार्यवाही संभव हो सकेगी।

पेंशन-पिपासु बाबू गंगाराम ने अविलम्ब सभी बिन्दुओं का स्पष्टीकरण प्रस्तुत कर दिया और फिर पेंशन की आस में बैठ गये। उन्हें पेंशन की जगह पन्द्रह दिन बाद झुन्नी बाबू के करकमलों से लिखित पत्र मिला जिसमें उन्होंने बाबू गंगाराम के द्वारा प्रेषित जानकारी में से चार बिन्दुओं में कुछ महत्वपूर्ण खामी बतायी थी और उन्हें शीघ्र दुरुस्त करने की हिदायत दी थी।

घबराकर गंगाराम बाबू ने फिर चार बिन्दुओं पर जानकारी प्रेषित की और फिर पेंशन की उम्मीद में दिन गिनते बैठ गये। पेंशन की जगह उन्हें फिर झुन्नी बाबू का प्रेमपत्र मिला जिसमें उन्होंने दो नये बिन्दुओं पर जानकारी मांगी थी।
फिर यही सिलसिला चल पड़ा। बाबू गंगाराम जानकारी भेजते और झुन्नी बाबू किसी नयी जानकारी की मांग पेश कर देते।

समझदार लोगों ने बाबू गंगाराम को समझाया। कहा कि झुन्नी बाबू का चरित्र दिन की तरह साफ और जगविख्यात और उनकी नीति अटल है। इसलिए बाबू गंगाराम लिखित बिन्दुओं पर ध्यान देने के बजाय अलिखित बिन्दुओं को समझकर उनकी तत्काल आपूर्ति करें और पेंशन प्राप्त कर निश्चिन्त हों।

लेकिन बाबू गंगाराम भी ठहरे उसूल वाले आदमी।उन्होंने घोषणा कर दी कि चाहे पेंशन आजीवन न मिले, वे रिश्वत कदापि नहीं देंगे। बस,दो उसूलवालों के बीच लड़ाई ठन गयी।

अन्ततः बाबू गंगाराम झुन्नी बाबू के दफ्तर के सामने धरने पर बैठ गये। अफरातफरी मच गयी।अखबारबाज़ी शुरू हो गयी।टेलीफोन बजने लगे। चिन्तित अधिकारी झुन्नी बाबू के चक्कर लगाने लगे। लेकिन झुन्नी बाबू सन्तों की मुद्रा में बैठे थे। उनका कहना था कि मामला वित्तीय है, जब तक फाइल का पेट न भरे वे कुछ नहीं कर सकते।

बड़े साहब ने झुन्नी बाबू के सहयोगी मिट्ठू बाबू से गंगाराम की फाइल निपटा देने को कहा। मिट्ठू बाबू हाथ उठाकर बोले, ‘हम तो पाँच मिनट में निपटा दें सर, लेकिन मामला उसूल का है। किसी का उसूल तुड़वाकर हम पाप नहीं लेना चाहते। उसूल जो होता है वह जिन्दगी भर की तपस्या से पैदा होता है।’

लोग कर्मचारी यूनियन के पास दौड़े तो उन्होंने भी टका सा जवाब दे दिया—-‘मामला उसूल का है इसलिए हम इसमें हस्तक्षेप करने में असमर्थ हैं।’

धरने पर बैठे बाबू गंगाराम की हालत बिगड़ने लगी। एक तो रिटायर्ड आदमी, दूसरे पेंशन की चिन्ता,यानी दूबरे और दो असाढ़। लेकिन झुन्नी बाबू चट्टान की तरह दृढ़ थे। उनका कहना था,’एक बार दस्तूरी हमारे हाथ में आ जाए, फिर हम पूरी वापिस कर देंगे। उसूल का सवाल है। उनकी जिद है तो हमारी भी जिद है। उसूल पर चलने वाले को किसका डर? देखते हैं किसका उसूल जीतता है।’

जब झुन्नी बाबू के उसूलों से टकराकर पूरा तंत्र ध्वस्त हो गया और बाबू गंगाराम की हालत दयनीय हो गयी तब कुछ शुभचिन्तक फिर सक्रिय हुए।बाबू गंगाराम के सुपुत्र से गुपचुप वार्ता की गयी ताकि साँप मर जाए और लाठी बची रहे। फिर एक दिन बाबू गंगाराम की नज़र बचाकर सुपुत्र को झुन्नी बाबू के सामने पेश किया गया जहाँ झुन्नी बाबू की हथेली में दस्तूरी रखी गयी और फिर झुन्नी बाबू ने पूरी की पूरी रकम सुपुत्र की जेब में खोंसकर अपनी उदारता और महानता का परिचय दिया। वह दृश्य देखकर उपस्थित लोगों का गला भर आया। दफ्तर में झुन्नी बाबू की प्रतिष्ठा दुगुनी हो गयी।

फिर दो दिन के अन्दर बाबू गंगाराम की फाइल का निपटारा हो गया और उन्हें पेंशन प्राप्त होने का रास्ता चौपट खुल गया। बाबू गंगाराम पूरी उम्र इस मुग़ालते में रहे कि उनके उसूल के सामने झुन्नी बाबू का उसूल मात खा गया,जबकि हकीकत इसके उलट थी, जैसा कि आपने खुद देखा। जो भी हो, हम तो यही मनाते हैं कि जैसे झुन्नी बाबू गंगाराम जी पर अन्ततः द्रवित हुए, उसी तरह हर दफ्तर के झुन्नी बाबू जनता-जनार्दन पर कृपालु हों।

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )