सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “लाल जोड़ा”। यह लघुकथा हमें परिवार ही नहीं पर्यावरण को भी सहेजने का सहज संदेश देती है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से समाज को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए बधाई ।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 12 ☆
☆ लाल जोड़ा ☆
बहुत बड़ी स्मार्ट सिटी। चारों तरफ से आवागमन के साधन। स्कूल, कॉलेज, सिनेमा घर, बाजार, अस्पताल, सभी प्रकार की सुविधा। सिटी से थोड़ी दूर बाहर करीब 50 किलोमीटर के पास एक छोटा सा तालाब वहां 60-65 मकान जो झुग्गी झोपड़ी नुमा। शहर के वातावरण से बिल्कुल अनजान। अपने में ही मस्त रहना। और चाहे दुख हो चाहे सुख, बस वही सभी को निपटना। गांव से शहर कोई आता, जरूरत का सामान ले जाता। गाय भी पाले परंतु दूध अपने उपयोग के लिए नहीं करना। शहर में बेच कर पैसे कमाना। किसी के यहां मुर्गी का दड़बा भी है। बकरियां भी पाल रखे हैं। छोटे- बड़े, बच्चे, महिला, लड़कियां, सभी आपस में ही मिलकर रहना यही उनकी जिंदगी है।
रोज शाम को काम से सभी लौटने के बाद खाना बनाने वाले खाना बनाते हैं बाकी सब एक गोल घेरा बनाकर बैठे दिन चर्चा करते। किसी की बेटी की शादी, किसी के बेटे का ब्याह, सभी आसपास ही होता था।
उन्हीं घरों में बैदेही अपने माता – पिता के साथ रहती थी। जैसा नाम वैसा ही उसका काम। सभी का काम करती। बड़े – बुजुर्गों के काम पर चले जाने के बाद खुद 14 साल की बच्ची परंतु, अपने से छोटे सभी का ध्यान रखती थी। स्कूल तो जैसे किसी ने देखा ही नहीं। कभी गए, कभी नहीं गए। क्योंकि, जाने पर घर का काम कौन करता। अक्षर ज्ञान सभी को आता था।
बैदेही पढ़ने में होशियार थी। उसके अपने साथ की सहेली उससे कहती “बैदेही तुम तो निश्चित ही शहर जाओगी।” परंतु बेहद ही कहती “अरे नहीं इस मिट्टी को छोड़कर मैं कहीं भी नहीं जाऊंगी। देखना इसी मिट्टी पर मेरा अपना घर होगा।”
दिन बीतते गया। बैदेही का ब्याह तय किया माँ बापू ने। एक लड़का पास के गांव में स्कूल में चौकीदार का काम करता था। सभी बस्ती के लोग बहुत खुश थे, बैदेही के ब्याह को लेकर। बाजे – गाजे बजने लगे, सुहाग का जोड़ा भी आ गया। बैदही के लिए सभी लाल सुर्ख जोड़े को देखकर प्रसन्न थे।
दिन में पूजन का कार्यक्रम चल रहा था बस्ती के सभी महिलाएं पुरुष पास में मंदिर गए हुए थे। छोटा सा पंडाल लगा था बैदही के घर। घर में कुछ छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। बैदेही को हल्दी लगनी थी। सारी तैयारियां चल रही थी। खाना भी बन रहा था।
थोड़ी देर बाद अचानक आँधी चलने लगी। पंडाल जोर-जोर से हिलने लगा। मिट्टी का मकान सरकने की आवाज से बैदेही चौंक गई। तुरंत बच्चों को बाहर कर दिया और जरूरत का सामान बाहर लाने जा रही थी। हाथ में अपना लाल जोड़ा लेकर बैदेही बाहर दौड़ रही थी परंतु ये क्या! ऊपर से खपरैल वाला छत बैदेही के ऊपर आ गिरा। सैकड़ों लाल खपरैल से बैदेही दब गई। और जैसे आँधी एक बार में ही शांत हो गई। सभी आकर जल्दी-जल्दी बैदेही को निकालना शुरू किए। बहुत देर हो जाने के कारण बैदेही के प्राण- पखेरू उड़ चुके थे। बच्चों की जान बचाते बैदेही अपने सुहाग का जोड़ा हाथ में लिए सदा-सदा के लिए उसी मिट्टी में सो गई थी।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
जबलपुर, मध्य प्रदेश