डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर एक लघुकथा ‘दमडी’। आज की लघुकथा हमें मानवीय संवेदनाओं, मनोविज्ञान एवं विश्वास -अविश्वास के विभिन्न परिदृश्यों से अवगत कराती है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 55 ☆
☆ लघुकथा – दमडी ☆
माँ! देखो वह दमडी बैठा है, कहाँ ? सहज उत्सुकता से उसने पूछा। बेटे ने संगम तट की ढलान पर पंक्तिबद्ध बैठे हुए भिखारियों की ओर इशारा किया। गौर से देखने पर वह पहचान में आया – हाँ लग तो दमडी ही रहा है पर कुछ ही सालों में कैसा दिखने लगा ? हड्डियों का ढांचा रह गया है। दमडी नाम सुनते ही मानों किसी ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। दमडी की दयनीय अवस्था देखकर दया और क्रोध का भाव एक साथ माँ के मन में उमडा। दमडी ने किया ही कुछ ऐसा था। बीती बातें बरबस याद आने लगीं – दमडी मौहल्ले में ही रहता था, सुना था कि वह दक्षिण के किसी गांव का है। कद काठी में लंबा पर इकहरे शरीर का। बंडी और धोती उसका पहनावा था। हररोज गंगा नहाने जाता था। एक दिन घर के सामने आकर खडा हो गया, बोला –बाई साहेब रहने को जगह मिलेगी क्या ? आपके घर का सारा काम कर दिया करूँगा। माँ ने उसे रहने के लिए नीचे की एक कोठरी दे दी। दमडी के साथ उसका एक तोता भी आया, सुबह चार बजे से दमडी उससे बोलना शुरू करता – मिठ्ठू बोलो राम-राम। इसी के साथ उसका पूजा पाठ भी चलता रहता। सुबह हो जाती और दमडी गंगा नहाने निकल जाता। सुबह शाम उसके मुँह पर राम-राम ही रहता। माँ खुश थी कि घर में पूजा पाठी आदमी आ गया है। वह घर के काम तो करता ही बच्चों की देखभाल भी बडे प्यार से करता। दमडी की दिनचर्या और उसके व्यवहार से हम सब उससे हिलमिल गए थे। दमडी अब हमारे घर का हिस्सा हो गया। यही कारण था कि उसके भरोसे पूरा घर छोडकर हमारा पूरा परिवार देहरादून शादी में चला गया। माँ पिताजी के मन में यही भाव रहा होगा कि दमडी तो है ही फिर घर की क्या चिंता।
उस समय मोबाईल फोन था नहीं और घर के हालचाल जानने की जरूरत भी नहीं समझी किसी ने। शादी निपटाकर हम खुशी खुशी घर आ गए। कुछ दिन लगे सफर की थकान उतारने में फिर घर की चीजों पर ध्यान गया। कुछ चीजें जगह से नदारद थी, माँ बोली अरे रखकर भूल गए होगे तुम लोग। एक दिन सिलने के लिए सिलाई मशीन निकाली गई, देखा उसका लकडी का कवर और नीचे का हिस्सा तो था पर सिलाई मशीन गायब। अब स्थिति की गंभीरता समझ में आई और चीजें देखनी शुरु की गई तो लिस्ट बढने लगी। अब पता चला कि सिलाई मशीन, ट्रांजिस्टर, टाईपराईटर, बहुत से नए कपडे और भी बहुत सा सामान गायब था। दमडी तो घर में ही था उसका मिठ्ठू बोलो राम-राम भी हम रोज सुन रहे थे। सब कमरों में ताले वैसे ही लगे थे, जैसे हम लगा गए थे, फिर सामान गया कहाँ ? दमडी को बुलाया गया वह एक ही बात दोहरा रहा था—बाईसाहेब मुझे कुछ नहीं पता। कोई आया था घर में, नहीं बाई, तो घर का सामान गया कहाँ ? हारकर पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई। पुलिस मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पूरी कर रही थी, रोज शाम को पुलिसवाले आ जाते, चाय – नाश्ता करते और दमडी की पिटाई होती। पुलिस की मार से दमडी चिल्लाता और हम बच्चे पर्दे के पीछे खडे होकर रोते। रोज के इस दर्दनाक ड्रामे से घबराकर पुलिस के सामने पिताजी ने हाथ जोड लिए। इस पूरी घटना का एक भावुक पहलू यह था कि चोरी गया ट्रांजिस्टर मेरे मामा का दिया हुआ था जिनका बाद में अचानक देहांत हो गया था। माँ दमडी के सामने रो रोकर कह रही थी हमारे भाई की आखिरी निशानी थी बस वह दे दो, किसी को बेचा हो तो हमसे पैसे ले लो, खरीदकर ला दो। माँ के आँसुओं से भी दमडी टस से मस ना हुआ। उसने अंत तक कुछ ना कबूला और माँ ने उसे यह कहकर घर से निकाल दिया कि तुम्हें देखकर हमें फिर से सारी बातें याद आयेंगी।
इसके बाद कई साल दमडी का कुछ पता ना चला। कोई कहता कि मोहल्ले के लडकों ने उससे चोरी करवाई थी, कोई कुछ और कहता। हम भी धीरे धीरे सब भूलने लगे। आज अचानक उसे इतनी दयनीय स्थिति में देखकर माँ से रहा ना गया पास जाकर बोली – कैसे हो दमडी ? बडी क्षीण सी आवाज में हाथ जोडकर वह बोला – माफ करना बाईसाहेब। माँ वहाँ रुक ना सकी, सोच रही थी पता नहीं इसकी क्या मजबूरी रही होगी।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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