श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  विचारणीय कविता  ‘सब जानती हैं वे’ इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 88 ☆

☆ कविता – सब जानती हैं वे ☆

सब जानती हैं वे   !

क्योंकि बुहारती हैं वे घर का कोना कोना .

घर की हर खटक को पहचानती हैं वे .

सब जानती हैं वे   !

 

तुम्हें अच्छी तरह पहचानती हैं वे,

क्योंकि तुम्हें देखा है उन्होंने अनावृत.

उन्हें होती है तुम्हारी हर खबर,

 

घर, बाहर .

सुन सकती हैं तुम्हारी अनकही बातें .

सब जानती हैं वे   !

 

अपनी पीठ से भी वे

पढ़ सकती हैं सारी  आंखें .

होती हैं वे गर जरा भी  बेखबर .

तो हो जाता है उनका बलात्कार .

कितना घटिया समाज है यार .

इसीलिये शायद

सब जानती हैं वे   !

 

पैंट तो पहन लिया है तुमने,

पर उतारी नहीं है पैरों की पायल .

ओढ़ ली है

नारी प्रगति के नाम पर

पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर तुमने

बाहर की जबाबदारी

पर अब भी लदी हुई है पूर्ववत

तुम पर घर की जिम्मेदारी .

 

अच्छा लगता है जब तुम्हें देखता हूँ ,

पुरुष साथी को साथ बैठाये

स्कूटी या कार चलाते हुये

पर सोचता हूँ कि

तुम थक जाती होगी ,

क्योंकि

रोटियाँ तो तुमसे ही माँगते हैं बच्चे.

थके हारे क्लाँत पुरुष को

तुम्हारे ही अंक में मिलता है सुकून .

 

तुम्हें पंख लगाकर ,

कतर लिये हैं

फैशन की दुनिया ने

तुम्हारे कपड़े .

 

छद्म रावणों

दुःशासन और दुर्योधनों की

आँखों से घिरी हुई,

महसूस करती हो हर तरफ

मर्यादा का शील हरण .

पर तुम बेबस हो .

 

इस बेबसी का हल है

मेरे पास .

पहनो शिक्षा का गहना ,

मत घोंटने दो

कोख में ही गला

अपनी अजन्मी बेटी का ,

संसद में अक्षम नहीं होगा

स्त्री आरक्षण का बिल

जब सक्षम होगी स्त्री .

 

और जब सक्षम होगी स्त्री

तब तुम

बाहर की दुनियाँ सम्भालो या नहीं

घर , बाहर ससम्मान जी सकोगी .

पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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