हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 12 ☆ घरौंदा ☆ – डॉ. मुक्ता
डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की कविता “घरौंदा ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 12 ☆
☆ घरौंदा ☆
घरौंदा
मालिक की
नजर पड़ते ही
घोंसले में बैठे
चिड़ा-चिड़ी चौक उठते
और अपने नन्हें बच्चों के
बारे में सोच
हैरान-परेशान हो उठते
गुफ़्तगू करते
आपात काल में
इन मासूमों को लेकर
हम कहां जाएंगे
चिड़ा अपनी पत्नी को
दिलासा देता
‘घबराओ मत!
सब अच्छा ही होगा
चंद दिनों बाद
वे उड़ना सीख जाएंगे
और अपना
नया आशियां बनाएंगे’
‘परन्तु यह सोचकर
हम अपने
दायित्व से मुख
तो नहीं मोड़ सकते’
तभी माली ने दस्तक दी
और घोंसले को गिरा दिया
चारों ओर से त्राहिमाम् …
त्राहिमाम् की मर्मस्पर्शी
आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं
जैसे ही उन्होंने
अपने बच्चों को
उठाने के लिये
कदम बढ़ाया
उससे पहले ही
माली द्वारा
उन्हें दबोच लिया गया
और चिड़ा-चिड़ी ने
वहीं प्राण त्याग दिए
इस मंज़र को देख
माली ने मालिक से
ग़ुहार लगाई
‘वह भविष्य में
ऐसा कोई भी
काम नहीं करेगा
आज उसके हाथो हुई है
चार जीवों की हत्या
जिसका फल उसे
भुगतना ही पड़ेगा’
वह सोच में पड़ गया
‘कहीं मेरे बच्चों पर
बिजली न गिर पड़े
कहीं कोई बुरा
हादसा न हो जाए’
‘काका!तुम व्यर्थ
परेशान हो रहे हो
ऐसा कुछ नहीं होगा
हमने तो अपना
कमरा साफ किया है
दिन भर गंदगी
जो फैली रहती थी’
परन्तु मालिक!
यदि थोड़े दिन
और रुक जाते
तो यह मासूम बच्चे
स्वयं ही उड़ जाते
इनके लिए तो
पूरा आकाश अपना है
इन्हें हमारी तरह
स्थान और व्यक्ति से
लगाव नहीं होता
काका!
तुमने देखा नहीं…
दोनों ने
बच्चों के न रहने पर
अपने प्राण त्याग दिए
परन्तु मानव जाति में
प्यार दिखावा है
मात्र छलावा है
उनमें नि:स्वार्थ प्रेम कहां?
‘हर इंसान पहले
अपनी सुरक्षा चाहता
और परिवार-जनों के इतर
तो वह कुछ नहीं सोचता
उनके हित के लिए
वह कुछ भी कर गुज़रता
परन्तु बच्चे जब
उसे बीच राह छोड़
चल देते हैं अपने
नए आशियां की ओर
माता-पिता
एकांत की त्रासदी
झेलते-झेलते
इस दुनिया को
अलविदा कह
रुख्सत हो जाते
काश! हमने भी परिंदों से
जीने का हुनर सीख
सारे जहान को
अपना समझा होता
तो इंसान को
दु:ख व पीड़ा व त्रास का
दंश न झेलना पड़ता’
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
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