डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय स्त्री विमर्श मी टू : अंतहीन सिलसिला। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 80 ☆
☆ मी टू : अंतहीन सिलसिला ☆
‘मी टू’ एक सार्थक प्रयास, शोषित महिलाओं को न्याय दिलाने की मुहिम, वर्षों से नासूर बन रिसते ज़ख्मों से निज़ात पाने की अचूक मरहम… एक अंतहीन सिलसिला है। बरसों से सीने में दफ़न चिंगारी ज्वालामुखी पर्वत की भांति सहसा फूट निकलती है, जो दूसरों के शांत-सुखद जीवन को तहस-नहस करने का उपादान बन, अपनी विजयश्री का उत्सव मना रही होती है, विजय पताका लहरा रही होती है, जिससे समाज में व्याप्त समन्वय व सामंजस्यता का अंत संभाव्य है। भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने शोषित मासूमों में अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस जगाया है, क्योंकि अन्याय व ज़ुल्म सहन करने वाला, ज़ुल्म करने वाले से अधिक दोषी व अपराधी स्वीकारा जाता है। औरतों की ‘मी टू’ में सक्रिय प्रतिभागिता होने पर, समाज के हर वर्ग के रसूखदार सदमे में हैं, क्योंकि किसी भी पल उन पर उंगली उठ सकती है और वे हाशिए पर आ सकते हैं। वैसे तो हर औरत इन हादसों की शिकार होती है। बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक कदम-कदम पर उसकी अस्मत पर प्रहार किया जाता है और उसे इन विषम परिस्थितियों से जूझना पड़ता है…मुंह बंद कर के रहना पड़ता है ताकि परिवार का रूतबा कायम रह सके।
आइये! ज़रा दृष्टिपात करें इसके स्याह पक्ष पर… बहुत सी महिलाएं अपना स्वार्थ साधने हेतु निशाना दाग़ने से नहीं चूकतीं। वे धन- ऐश्वर्य पाने, झूठी पद- प्रतिष्ठा बटोरने व अधिकाधिक सुख-सुविधा जुटाने के निमित्त, लोक-मर्यादा की परवाह न करते हुए, हर सीमा का अतिक्रमण कर गुज़रती हैं। जैसे 498 ए के अंतर्गत दहेज मांगने के इल्ज़ाम में, पति व ससुराल पक्ष के लोगों को कटघरे खड़ा करना, जेल की सीखचों के पीछे पहुंचाना या दुष्कर्म के झूठे आरोप लगाने का दम्भ भरना, अपनी कारस्तानियों का सबके सम्मुख सीना तान कर दम्भ भरना..सोचने पर विवश करता है… आखिर किस घने स्याह अंधकार में खो गयी है ममता की सागर, सीने में अथाह प्यार, असीम वफ़ा व त्याग समेटे नि:स्वार्थी, संवेदनशील, श्रद्धेय नारी…जिसकी तलाश आज भी जारी है। मी टू के झूठे आरोप लगा कर या दुष्कर्म के झूठे आरोप लगाकर पैसा व धन- सम्पत्ति ऐंठने का प्रचलन बदस्तूर जारी है, जिसके परिणाम- स्वरूप आत्महत्या के मामले भी सामने आ रहे हैं, जो समाज के लिए घातक हैं; मानव-जाति पर कलंक हैं… शोचनीय हैं, चिन्तनीय हैं, मननीय हैं, निन्दनीय हैं।
एक प्रश्न मन में कुलबुलाता है…आखिर इतने वर्षों के पश्चात्, इन दमित भावनाओं का प्राकट्य क्यों… यह दोषारोपण तुरन्त क्यों नहीं? इसके पीछे की मंशा व प्रयोजन जानने की आवश्यकता है, जिसका ज़िक्र पहले किया जा चुका है। इस संदर्भ में उन महिलाओं की चुप्पी व तथाकथित कारणों पर प्रकाश डालने की अत्यंत आवश्यकता है कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के पश्चात् सहसा यह विस्फोट क्यों?
प्रश्न उठता है क्या ‘मी टू’ वास्तव में विरेचन है…उन दमित भावनाओं का, अहसासों का, जज़्बातों का, जो उनके असामान्य व्यवहार को सामान्य बना सकता है। वे लोग,जो शराफ़त का नकाब ओढ़े, समाज में ऊंचे-ऊंचे पदों पर काबिज़ हैं, उनकी हक़ीक़त को उजागर करने का माध्यम है, उनके जीवन के कटु यथार्थ को प्रकट करने का मात्र उपादान है, साधन है। क्या यह आधी आबादी को न्याय दिलाने का एकमात्र उपाय है?
आइए! इस विषय के सकारात्मक व नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा करें…क्या यह दोनों पक्षों के हित में है… शायद नहीं। वास्तव में आरोपी पक्ष पर इल्ज़ाम लगाने पर, कीचड़ के छींटे हमारे उजले दामन को भी मैला करते हैं और दोनों परिवारों की इज़्ज़त ही दांव पर नहीं लगती, उनके घरों का सुख-चैन, शांति व सुक़ून भी नदारद हो जाता है। यहां तक कि चंद आत्महत्याओं के मामलों ने तो अंतर्मन को इस क़दर झिंझोड़ कर रख दिया कि सुप्रीम कोर्ट की सोच पर भी पुन:चिंतन करने की आवश्यकता का विचार मन में सहसा कौंधा, क्योंकि इससे मानसिक आघात व हंसते-खेलते परिवारों में ग्रहण लगने की अधिक संभावना है।शेष निर्णय व दायित्व आप पर।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,
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