डॉ राकेश ‘ चक्र’
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय आलेख “कूड़े की आत्मकथा”.)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 60 ☆
☆ कूड़े की आत्मकथा ☆
दोस्तो मैं कूड़ा हूँ । मुझे आज अपनी आत्मकथा इसलिए लिखनी पड़ रही है कि लोग मुझे यथास्थान न डालकर नाले – नालियों , रेलवे लाइनों के किनारे या ऐसी जगह फेंकते हैं, जहाँ कोई भी अपने को मनुष्य कहनेवाला मानव नहीं फेंकेगा। लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं हैं , ऐसा लग रहा है कि वे बिल्कुल चिकने घड़े हो गए हैं। अपना चेहरा भी सबको ऐसे दिखाते हैं कि हमसे ज्यादा तो कोई काबिल है ही नहीं। बल्कि जो भी समझदार मनुष्य ऐसा करने के लिए मना भी करे या समझाए तो उसे पागल, मसखरा कहकर अपने ही जैसे लोगों के बीच मख़ौल उड़ाते हैं, कमाल के लोग हैं साहब इस प्रजातंत्र के। छुट्टे सांड की तरह मनमानी करना चाहते हैं। लज्जा शर्म तो उन्होंने उतार कर ही रख दी है। अज्ञान और अहंकार में गले तक डूबे हैं। क्योंकि उनको बाहुबल और माया का गुरूर है। वैसे मैं मानता हूँ कि सुविधाभोगी लोगों ने मुझ कूड़े से धरती और जल को पाटकर पर्यावरण को विनाशकारी बनाया है और निरंतर बना रहे हैं। अब मैं धरती पर प्लास्टिक अर्थात मोमजामे से बनी पन्नियों के रूप में धरती और जल पर अपना घर स्थापित कर रहा हूँ। लोग मुझे एक बार के अलावा दुबारा भी प्रयोग नहीं करना चाहते हैं। मुझसे तो खिलवाड़ गरीब और अमीर सब ही कर रहे हैं। सबको हर सामान प्लास्टिक की पन्नी में चाहिए। मजे की बात है कि सरकार ने मुझे बन्द करने के लिए कुछ आदेश भी कर रखे हैं लेकिन मैं तो कूड़े के रूप में वैध अवैध रूप से खूब उत्पादित हो रहा हूँ। सब कुछ भ्रष्टाचार के रूप में सब कुछ फल फूल रहा है। सब भाग रहे हैं मैराथन दौड़ में।
लोग हैं कि प्लास्टिक की पन्नियों में पशुओं के खाने का कूड़ा आदि भरकर सड़क, राह व मौहल्ले में फेंक देते हैं, उसे ही खाकर कितनी ही गाय आदि अकाल ही मौत के मुँह में समाए जा रही हैं। कमाल के लोग हैं साहब इस देश के, अति के लापरवाह और गैरजिम्मेदार।
दोस्तो हर घर में ही मेरा रहन सहन होता रहता है और हर घर से ही मुझे नाक मुँह सिकोड़ते और बेकार समझकर रोज – रोज तो कभी होली और दीवाली पर बाहर फेंक दिया जाता है। मुझ कूड़े के हजारों रूप हैं।
कुछ लोग मुझसे ही रोजगार पाते हैं, मुझे गले लगाते हैं, मेरे साथ सोते जागते भी हैं। बल्कि मेरी उपस्थिती में ही पीते-खाते हैं। मैं उनके लिए बड़े काम की चीज हूँ साहब।
नित्य ही वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं। नई निराली वस्तुएँ सुविधाभोगिता की बढ़ती ही जा रही हैं। उतना ही मैं भी भी खूब फल फूल रहा हूँ। मुझसे ही कबाड़ का व्यापार करने वाले अनेकानेक बड़े और छोटे कबाड़ी रोजगार पा रहे हैं। कितने ही मुझ कूड़ा में से उपयोगी चीजें एकत्रित करनेवाले परिवार मेरी सँग ही जीते और मरते हैं, हजारों बड़े और बच्चे।
हर वस्तु की अपनी उम्र भी होती है। लेकिन मैं अमर हूँ। मैं किसी न किसी रूप में हर युग में उपस्थित रहा हूँ। जब प्लास्टिक की उत्पाद का जन्म नहीं हुआ था, तब लोग सामान क्रय करने के लिए घर से कपड़े के थैले लेकर आते थे। घर के सब्जी व फलों के आदि के छिलकों आदि को गाय और पशुओं को खिला दिया जाता था। या उसका खाद ही बना लिया जाता था। अर्थात उसका सही उपयोग हो जाता था। साथ ही लोग सामान खरीदने के लिए अपने साथ कपड़े से बना थैला आदि रखते थे, लेकिन जब से नए नए आविष्कार और सुविधाभोगिता ने पाँव पसारे हैं, तब से तो मेरी बहार ही आ गई है। हर जगह मेरा साम्राज्य फैल गया है। धरती और नदियों से लेकर समुंदर तक।
हजारों टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल आदि जब पूरी तरह खराब और अनुपयोगी हो जाते हैं तब वे कूड़ा बनकर कबाड़ की दुकानों तक पहुंचते हैं, फिर बड़े व्यापारियों तक और फिर उन तक जो मुझे जलाकर उसमें से तांबा आदि वस्तुओं को निकालते हैं। यह सब काम व्यापारी और पुलिस की सांठगांठ से सम्पन्न होता रहता है और मैं कूड़ा वायु में मिलकर तुम सबकी साँसों में समा जाता हूँ तथा तुम्हें बीमारियां परोसकर अपना साम्राज्य बढ़ाता रहता हूँ।
मैं कूड़ा हूँ मैं सुचारू रूप से अपना निदान और समाधान आपके द्वारा चाहता हूँ। एक हमारे दादाजी हैं वे तो सब्जी फल आदि के छिलकों का पौधों के लिए घर में ही खाद बना लेते हैं। तोते, बन्दर और गिलहरी आदि भी उसमें से चुन कर कुछ खा जाते हैं और जो बचता है उसकी खाद बना लेते हैं। पौधे मस्त और स्वस्थ हो जाते हैं। अर्थात एक पंथ दो काज।
मैं कूड़ा चाहता हूँ कि मुझे यथास्थान डालो, मेरा उपयोग करो। नाले और नालियों में नहीं डालो। न ही नदियों में मुझे डालो, जैसा कि धर्मभीरू लोग पूजा का अवशेष प्लास्टिक की पन्नियों में भरकर डाल रहे हैं। वे सब पाप के भागी ही बन रहे हैं। हरा और सूखा कूड़ा अलग डालो। उसका उपयोग हो। सरकारी मशीनरी उसका सही निदान खोजे।अनुपयोगी सामान जैसे टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल या अन्य ऐसे ही सामानों का सरकार और वैज्ञानिक समाधान और निदान खोजें। नहीं तो ये धरती एक दिन कूड़े के ढेर के रूप में सिमट जाएगी। वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण से आज सभी ही त्रस्त हैं। अधिकांश लोग अर्थात सरकारी मशीनरी से लेकर सभी सुविधाभोगिता और निजी स्वार्थ के मायाजाल में फँसे हुए हैं। बहुत कम लोग पंच तत्वों को बचाने की सोच रहे हैं। प्लास्टिक की फैक्टरियों पर प्रतिबंध भी लगने चाहिए। विशेष तौर अवैधों पर। तब कहाँ दिखेंगी ये धरा और जल पर फैली प्लास्टिक की पन्नियाँ। और कौन इन्हें जलाकर करेगा वायु प्रदूषण।
मैं कूड़ा हूँ मेरा उचित निदान और समाधान खोजिए, यदि युद्धस्तर पर नहीं सोचा गया या किया गया तो न पीने का पानी शुद्ध मिलेगा और न वायु। सारे के सारे भौतिक संसाधन और नए नए उत्पाद धरे के धरे रह जाएंगे। लोग कोरोना महामारी की तरह बेमौत दम तोड़ेंगे। मंथन और चिंतन करिए। शुरुआत अपने से करिए। मुझ कूड़े का यथासंभव निदान करिए।नदियों और नाले नालियों को मुझ कूड़े से मत पाटिए।
© डॉ राकेश चक्र
(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈