डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘पचास पार की औरत’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद सार्थक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 59 ☆
☆ लघुकथा – पचास पार की औरत ☆
सुनंदा बहुत दिनों से अनमनी सी हो रही थी, क्यों, यह उसे भी पता नहीं। बस मन कुछ उचट रहा था। बेटी की शादी के बाद से अक्सर ऐसा होने लगा था। पति अपनी नौकरी में व्यस्त और वह सारा दिन घर में अकेली। इतनी फुरसत तो आज तक कभी उसे मिली ही नहीं थी। वैसे तो परिवार में सब ठीक ठाक था, फिर भी रह-रहकर मन में निराशा और अकेलापन महसूस होता। दरअसल वह कभी घर में अकेली रही ही नहीं, अकेले घूमने–फिरने की आदत भी नहीं थी उसे। यही फुरसत और अकेलापन अब उसे खल रहा था, पर कहे किससे।
उसने कहीं पढा था कि 45 की उम्र के बाद स्त्रियों में हारमोनल बदलाव आते हैं और मन पर भी इसका असर पडता है, तो यह मूड स्विंग है क्या? वह सोच रही थी कि मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है क्या? अपने में ही उलझी हुई सी थी कि फोन की घंटी बजी, बेटी का फोन था – क्या कर रही हो मम्मां! बर्थडे का क्या प्लान है? कितने साल की हो गईं अब? इस प्रश्न का जबाब ना देकर वह बोली – अरे कुछ नहीं इस उम्र में क्या बर्थडे मनाना। जहाँ उम्र का काँटा 35-40 के पार गया कि फिर शरीर ही उम्र बताने लगता है बेटा। इसी के साथ विचारों का सिलसिला चल पडा, पचास की उम्र की महिलाओं की स्थिति कुछ वैसी ही होती है जैसे पंद्रह – सोलह साल की लडकियों की, जिन्हें ना छोटा समझा जाता है ना बडा। कुछ बडों जैसा बोल दिया तो डांट पडती है कि ज्यादा दादी मत बनो, और कोई काम नहीं किया तो सुनने को मिलता – इतनी बडी हो गई सहूर नहीं है, बिचारी बच्ची करे तो क्या करे? शायद वह भी आज उम्र के ऐसे ही पडाव पर है। अब पति कहते हैं – पहले कहती थी ना आराम के लिए समय नहीं मिलता, अब जितना आराम करना है करो। बेटी समझाती है घूमने जाइए, शॉपिंग करिए, मस्ती करिए, बहुत काम कर लिया माँ आपने। वह कैसे समझाए कि उसकी जिंदगी तो इन दोनों के इर्द- गिर्द ही घूमने की आदी है। अपने लिए कभी सोचा ही कहाँ उसने। अब एकदम से कैसे बदल ले अपने आपको? हैलो मम्मां कहाँ खो गईं? बेटी फोन पर फिर बोली। अरे यहीं हूँ, बोल ना। बताया नहीं आपने क्या करेंगी बर्थडे पर। अभी कुछ सोचा नहीं है, अच्छा फोन रखती हूँ बहुत काम हैं। फोन रखकर उसने आँसू पोंछे, ये आँखें भी ज्यादा ही बोलने लगीं हैं अब।
मुँह धोकर वह शीशे के सामने खडी हो गई। लगा बहुत समय बाद फुरसत से अपने चेहरे को देख रही है। आँखों के आसपास काले घेरे बढ गए थे, चेहरे पर उम्र की लकीरें भी साफ दिखने लगी थीं। चेहरे को देखते – देखते शरीर पर ध्यान गया, थकने लगी है अब। थोडा सा काम बढा, फिर दो दिन आराम करने को मन करता है। शीशे में देखकर उसने मुस्कुराने की कोशिश की, सुना था- शीशे के सामने खडे होकर मुस्कुराओ तो मन खुशी से भर जाता है। वह मुस्कुराने लगी – हाँ शायद बदल रहा है मन, कुछ कह भी रहा है – इस उम्र तक अपने लिए सोचा ही नहीं, पर अब तो सोचो। आधी जिंदगी परिवार में सिमटे रहो और बाकी उसकी याद में। खुद मत बदलो और जमाने से शिकायत करते फिरो, यह तो कोई बात नहीं हुई। निकलना ही होगा उसे अपने बनाए इस घेरे से जो उसके आगे के जीवन को अपनी चपेट में ले रहा है। अब भी अपने लिए नहीं जिऊँगी तो कब? उसने कपडे बदले, रिक्शा बुलाया और निकल पड़ी।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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