डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक बेहद मजेदार व्यंग्य ‘सुख का बँटवारा ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – सुख का बँटवारा ☆
समझदार लोग कह गये हैं कि सुख बाँटने से बढ़ता है और दुख बाँटने से हल्का होता है। लेकिन आज के ज़माने में अक्सर होता यह है कि दुख बाँटने से बढ़ जाता है और सुख इतने लोगों को दुखी कर देता है कि उसकी लज्जत जाती रहती है।
उस दिन मैं अपने जैसे चार पांच ठलुओं के साथ बैठा निन्दा-रस में स्नान कर रहा था। हमारा निन्दा का स्तर हमेशा राष्ट्रीय होता है। मुहल्ला स्तर की निन्दा से हम कभी संतुष्ट नहीं हुए जैसे कि कुछ निम्नस्तरीय लोग हो जाते हैं। दो तीन घंटे की भरपूर परनिन्दा के बाद हम लोग नयी स्फूर्ति और जीवन के प्रति नयी आस्था लेकर उठते थे। उसके बाद पूरा दिन उत्साह और उमंग में कट जाता था।
उस दिन हम सुख के सागर में गोते लगा रहे थे कि अचानक त्यागी जी आ गये। वे भी हमारी मंडली के सदस्य थे, लेकिन उस दिन लेट हो गये थे। यह आश्चर्य की बात थी क्योंकि आम तौर से परनिन्दा की संजीवनी की एक बूँद भी ज़ाया करना हमें बर्दाश्त नहीं होता।
त्यागी जी आकर निर्विकार और उदासीन भाव से बैठ गये। देखकर हमारा माथा ठनका। उनके निर्विकार दिखने का मतलब था कि कुछ था जो हमें बताने के लिए वे लालायित थे, और लालायित होने का मतलब था कि बात खुशी की थी। इसीलिए उनका भाव देखकर हमारा दिल बैठने लगा। निन्दा-रस बेमज़ा हो गया और, ज़बरदस्ती कुछ बोलते, हम तिरछी नज़रों से त्यागी जी को और सीधी नज़रों से एक दूसरे को देखने लगे।
उधर त्यागी जी हमारे पास से उठकर गुलाब की क्यारियों के पास खड़े होकर फूलों को देखने लगे थे। सालों से वे मेरे घर आते रहे थे, लेकिन उन्होंने कभी गुलाब और गोभी में फर्क नहीं किया था। आज वे जहांगीर की तरह गुलाब सूँघ रहे थे और काँटे हमारे दिल में चुभ रहे थे।
अन्त में वे हमारे पास आकर बैठ गये। उनकी मुद्रा देखकर हमें विश्वास हो गया कि वे कोई खुशी का हृदयविदारक समाचार सुनायेंगे। थोड़ी देर बाद वे लम्बी साँस छोड़कर बोले, ‘गाड़ी उठा ही ली।’
हमें धक्का लगा, लेकिन हम पूरे दुखी नहीं हुए क्योंकि ‘गाड़ी’ शब्द में बैलगाड़ी से लेकर रेलगाड़ी तक समाहित होती है।
हमने धड़कते दिल से पूछा, ‘कौन सी गाड़ी?’
वे हमारी बात को अनसुना करके बोले, ‘लड़के बहुत दिन से पीछे पड़े थे। अब तक हम टालते रहे। आखिरकार कल उठा ही लाये।’
हमें लगा यह आदमी हमारी जान लेने पर तुला है। हमने फिर पूछा, ‘कौन सी गाड़ी?’
वे उदासीन भाव से बोले, ‘मारुती वैन।’
सुनकर हम सभी हृदयाघात की स्थिति में आ गये। सबके चेहरे का खून निचुड़ गया। शरीर में जान न रही।
हमारी मंडली के भाई रामजलन बची खुची उम्मीद से मिनमिना कर बोले, ‘सेकंड हैंड ली होगी।’
त्यागी जी हिकारत के भाव से बोले, ‘अपन सेकंड फेकंड हैंड में बिस्वास नहीं करते। आज गाड़ी खरीदी, कल मिस्त्री के दरवाजे खड़े हैं। अपन तो ब्रांड न्यू खरीदते हैं। लाख पचास हजार ज्यादा लग जाएं, लेकिन साल दो साल निस्चिंत भाव से गाड़ी तो चलायें।’
सुनकर रामजलन बेहोश हो गये। मैंने जल्दी से पानी के छींटे मारे तब वे दुबारा ज़िन्दा हुए। लेकिन वहाँ से उठकर भीतर पलंग पर लेट गये। बोले, ‘तबियत गड़बड़ है।’
बाहर हमारी निन्दा-मंडली के शनीचर भाई और मनहूस भाई फर्श में नज़रें गड़ाये ऐसे खामोश बैठे थे जैसे घर में गमी हो गयी हो। बड़ी देर बाद शनीचर भाई नज़रें उठाकर त्यागी जी से बोले, ‘बैंक से लोन लिया होगा।’
त्यागी जी हाथ उठाकर बोले, ‘अरे नहीं भइया! अपन लोन-फोन के चक्कर में नहीं पड़ते। अपन ने तो पूरे पैसे डीलर के मुँह पर मारे और गाड़ी उठा लाये।’
सुनकर शनीचर भाई चित्त हो गये और हम उन्हें भी लाद-फाँदकर पलंग पर लिटा आये। चिन्ता की बात नहीं थी क्योंकि ऐसा अक्सर होता रहता था।
मनहूस भाई ज़मीन में नज़र गड़ाये गड़ाये मुझसे धीरे से बोले, ‘हम कुछ नहीं पूछेंगे। हम दूसरे के घर में बेहोश नहीं होना चाहते।’
त्यागी जी उमंग में बोले, ‘भाई, हमने सोचा कि अपने घर में खुसी आयी है तो दोस्तों को बताना चाहिए। खुसी बाँटने से बढ़ती है। हम खुस हैं तो दोस्तों को भी खुस होना चाहिए।’
मुनमुन भाई खुशी की खबर सुनकर अखबार के पीछे मुँह छिपाये बैठे थे। त्यागी जी की बात सुनकर अखबार थोड़ा नीचे करके मरी आवाज़ में बोले, ‘ठीक कहा आपने। हम सबको बड़ी खुशी हुई।’
त्यागी जी बोले, ‘हम यह सोच कर आये थे कि कल नयी गाड़ी में कहीं पिकनिक पर चलेंगे। पिकनिक भी हो जाएगी और गाड़ी का उदघाटन भी हो जाएगा।’
मनहूस भाई भारी आँखें उठाकर बोले, ‘अभी एकाध हफ्ता तो रहने दीजिए, त्यागी जी। रामजलन भाई और शनीचर भाई की हालत तो आप देख ही रहे हैं। अपनी तबियत भी सबेरे से गिरी गिरी है। एकाध हफ्ते में सब धूल झाड़कर खड़े हो जाएंगे। फिर तो पिकनिक होना ही है।’
त्यागी जी प्रसन्न भाव से बोले, ‘जैसी पंचों की मर्जी।’
उस दिन का सत्यानाश हो चुका था। थोड़ी देर में त्यागी जी चले गये और उनके जाने के बाद सभी दोस्त भारी कदमों से विदा हुए। दुनिया अचानक बदसूरत हो गयी थी और हर चेहरे से चिढ़ लग रही थी।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈