श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  “”ब से बजट और बसंत”“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 82

☆ व्यंग्य – “ब से बजट और बसंत”  ☆

बजट के बाद ‘बसंत’ इधर से उधर  भागमभाग मचाए हुए है

पीली सरसों के खेतों से लेकर अमराई तक दौड़ रहा है जब पूछा – कि क्यों दौड़ रहा है ? तो कहता है – लोकतंत्र के खातिर दौड़ चल रही है। लुढ़को बाई चिंतित है कि सड़कों पर नुकीली कीलों की फसल लगी है , और ये बसंत है कि लगातार दौड़ रहा है, इस बार के बजट में स्टील सेक्टर पर जोर इसीलिए दिया गया था कि बजट के बाद सड़कों पर  स्टील की नुकीली कीलें लगाने के काम से स्टील उद्योग में उछाल आयेगा।

लुढ़कोबाई परेशान है कि बेचारा बसंत भूखा प्यासा दौड़ रहा है। लुढ़कोबाई की चिंता जायज है, उसे लगता है कहीं नुकीली चीजों से बेटा घायल न हो जाए, इसीलिए ज्यादा चिंता कर रही है। लुढ़कोबाई के पास दो बीघा जमीन है इसलिए बसंत भी अपने आपको किसान कहलाने पर गर्व करता है, पर उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि किसान के भाग्य में बजट के बाद ये नुकीली कीलें ठोंकी जाएंगी।

लुढ़कोबाई की छोटी सी किराना दुकान भी है उसी के सहारे भूख मिटाने का जुगाड़ बनता है। लुढ़कोबाई के दो बेटे हैं एक का नाम ‘बसंत ‘है और दूसरा है’ विकास ‘..

बजट में विकास ही विकास का बड़बोलापन है इसलिए लोग कहते हैं कि विकास  पागल हो गया है लोग वोट को विकास से जोड़ देते हैं,पर ये बसंत को क्या हो गया है कि लोकतंत्र की चिंता में खाना पानी छोड़ के सरसों के खेतों से लेकर जंगल के महुआ के पेड़ों तक इधर से उधर भाग रहा है।  रास्ते भर नुकीली कीलें लगीं हैं पर इसे डर भी नहीं लगता। बसंती बयार चल रही है।

पेट के लिए सूखी रोटी और सोने के लिए थिगड़े वाली कथरी ही लुढ़कोबाई का लोकतंत्र है पर ये बसंत है कि उसे लोकतंत्र पसंद है जबकि ‘विकास ‘ वोट के चक्कर में घूमता है। विकास और बजट नाम ही ऐसे हैं जिसमें कुछ खास तरह का आकर्षण होता है।खपरेवाली किराना दुकान से नून – तेल लेने आने वाला गंगू अक्सर बेचारे बसंत को पूछता रहता है वो भी लोकतंत्र और बसंत के लिए चिंतित रहता है।

लुढ़कोबाई की दुकान में जीएसटी वाले साहेब आये हैं कह रहे हैं कि “लोकतंत्र में बसंत” लाने के लिए जीएसटी अनिवार्य है। लुढ़कोबाई परेशान है साहब से पूछ रही है – साहब जे “लोकतंत्र” क्या बला है ?…

साहब की आंखें नम हैं नम आंखों में नमक मिला जीएसटी का पानी है आंखों का नमक मिला पानी जब बह के मुंह में घुसने लगा तो साहब का मुंह खुल गया – सुनो लुढ़कोबाई ये लोकतंत्र मंहगी और समय बर्बाद करने वाली खूबी का नाम है भ्रमित करने का एक तरीका है, चुनावी भाषण में यह कहने की चीज है कि लोकतंत्र में लुढ़कोबाई सत्ता की मालकिन है।

लोकतंत्र में बसंत लाने के लिए लुढ़कोबाई एक अदने से बूथ तक चलके और एक अदने सी ईवीएम मशीन की बटन दबाके’ सेवक ‘पैदा करती है और सेवक अचानक सत्ता का शासक बन जाता है फिर उसके लोकतंत्र और बजट में बसंत आ जाता है। यही लोकतंत्र है।

लुढ़कोबाई डरते हुए हुए कह रही है – साहब हमारे बसंत को समझा दो वो बेचारा सरसों के खेतों और जंगल के महुआ में लोकतंत्र को ढूंढ़ रहा है भूखा प्यासा दौड़ता रहता है।

—सुनो लुढ़कोबाई ! इस बार के बजट में सबका बसंत लुढ़क गया है, सब लोग चिंता में है कि पिछले साल की सारी संपत्ति अमीरों के पास कैसे चली गई,  कोरोना आया तो अमीरों की संपत्ति बेहिसाब बढ़ी, और बाबा ने कह दिया आपदा में अवसर का कमाल है। भयानक आर्थिक असमानता से लोकतंत्र भी परेशान हो गया है और भ्रष्टाचार और ‘विकास” का दबदबा बढ़ गया है।

बसंती बयार चल रही है और विकास कंटीले तार की बाड़ और नुकीली कीलें देखकर खुश हो रहा है, गांव भर के लोग  विकास को चिढ़ा र‌हें हैं ये चिढ़ चिढ़कर और पगला रहा है । लुढ़को बाई लोगों से बार बार पूंछ रही है कि हमारे लुढ़के विकास को ठीक करने का कछु उपाय हो तो बताओ ?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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Shyam Khaparde

भाई, बहुत मजेदार व्यंग, बधाई