डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “महिला-पुरुष समानता का आलोक”.)

☆ किसलय की कलम से # 34 ☆

☆ महिला-पुरुष समानता का आलोक ☆

भारतीय जनमानस में परपराएँ एवं रीति-रिवाज अव्यवस्थाओं के नियंत्रण हेतु ही बनाई गई हैं। समाज में इनकी अनदेखी करना असामाजिक कृत्य समझा जाता है। प्राचीन काल से वर्तमान तक देखने में आया है कि तात्कालिक सामाजिक व्यवस्थाओं को ध्यान में रखकर ही परम्पराएँ बनाई गई हैं और समय-समय पर उनमें बदलाव भी होते आए हैं। इसका कारण बदलता सामाजिक ढाँचा तथा बदलती परिस्थितियाँ ही रही हैं।

आवश्यकतानुसार जिस तरह महिलाएँ घर और घूँघट से बाहर आई हैं । जातिबंधन शिथिल हुए हैं, बढ़ती शैक्षिक योग्यता से छोटे और बड़े की खाई पटती जा रही है। धर्म-कर्म की मान्यताएँ बदल रही हैं। लोक-परलोक का भय कम होता जा रहा है । इन सब को देखते हुए एवं पौराणिक खोजबीन के पश्चात ऐसे अनेक कारणों एवं प्रतिबंधों के मूल तक पहुँचने में हमने सफलता पाई है।

यही कारण है कि अब वर्तमान में अनेक अवांछित बंदिशें कमजोर पड़ती जा रही हैं। हम रिश्ते-नातों की बात करें, पति-पत्नी की बात करें, परिवार और समाज की बात करें। अब वह पुराना माहौल कम ही दिखता है। अब कमजोर पक्ष सुदृढ़ हो चुका है। समाज में स्त्री पुरुष के समान अधिकारों से वाकई क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। आज ढोंग, दकियानूसी एवं अंधविश्वास जैसी बातों पर विराम लगता जा रहा है। आज केवल उन्हीं परम्पराओं का निर्वहन किया जा रहा है, जो यथार्थ में समाज के लिए उपयोगी हैं।

आज हम देखते हैं कि महिलाएँ वे सारे कार्य सम्पन्न कर रही हैं जिन्हें पहले पुरुष वर्ग किया करता था। यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि चूल्हा-चौका से लेकर अंतरिक्ष तक महिलाएँ कहीं पीछे नहीं हैं। तकनीकि, विज्ञान, राजनीति, उद्योग, समाजसेवा एवं खेलकूद में भी महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है।

अब यह स्थिति है कि प्राचीन अनुपयुक्त परपराओं एवं रीति रिवाजों के अनुगामी स्वयं पिछड़ों की श्रेणी में गिने जाने लगे हैं। यह बात इंसानों को काफी देर से समझ में आई कि जब भगवान ने स्त्री-पुरुष में अंतर नहीं किया तो हम अंतर क्यों करें? जब हमने इस अंतर को पाटना प्रारंभ कर ही दिया है तो कुछेक विरोधी स्वर उठेंगे ही। यह भी एक सामाजिक प्रवृत्ति है कि प्रत्येक अच्छे कार्य का विरोध लोग अपनी अपनी तरह से शुरू कर ही देते हैं, लेकिन समय का बहाव विरोध को आखिर बहाकर ले ही जाता है, यह बात भी सच है।

समाज में तानाशाही भला कैसे चल सकती है। यहाँ एक अकेला नहीं पूरा का पूरा इन्सानी समूह है जिसमें सर्वसम्मति या बहुमत की मान्यता है। झुके हुए पलड़े का वजन भारी होता है और भारी का वर्चस्व ही होता है। इसलिए आज नहीं तो कल हमें इस बहाव के साथ बहना ही होता है। पहले महिलाओं पर प्रतिबंध कुछ ज्यादा ही हुआ करते थे और वे इन प्रतिबंधों के चलते घर तक ही सीमित रहती थीं, लेकिन आज आप हम बदलते परिवेश के स्वयं साक्षी हैं। आज जब एक लड़की अपने पिता की अर्थी को कंधा दे सकती है। अंतिम संस्कार कर सकती है। सैनिक, पायलट, ड्राइवर, उद्योग-धंधे एवं व्यवसाय कर सकती है। राजनीति के शिखर पर पहुँच सकती है, तब ऐसा कौन सा कार्य है जिसकी जिम्मेदारी से महिला कताराये या संकोच करे।

जब हमारे इसी समाज ने उसे उपरोक्त अनुमति दी है तब कुछ कुतार्किक परपराओं, रीति-रिवाजों से दूर रखकर क्या हम उन्हें इन सारी सहूलियतों और लाभों से वंचित तो नहीं कर रहे हैं, जो पुरुष वर्ग को प्राप्त हैं। पुरुष वर्ग को जिन कर्मों से पुण्य मिलता है, उसी कर्म से महिला वर्ग पाप की भागीदार कैसे हो सकता है? आप हम स्वयं सोचें एवं अपनी आत्मा से पूछें तब आपकी आत्मा स्वमेव महिलाओं का पक्ष लेगी।

वैसे तो भारतीय समाज में महिलाओं को लेकर अनेक मतभेद एवं विवाद होते रहे हैं। वर्षों पूर्व शनि शिंगणापुर में एक महिला द्वारा शनिदेव की पूजा करने और मूर्ति पर तेल चढ़ाने के मामले पर भी विवाद खड़ा हो गया था। तब वहाँ एक साथ दोनों पक्ष अपनी अपनी बात को उचित बतला रहे थे । एक ओर पुजारी, स्थानीय लोग एवं परम्परावादी प्राचीन प्रथा को आगे बढ़ाना चाहते थे, वहीं अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति सहित दूसरे पक्ष ने शनिदेव की पूजा में महिलाओं को शामिल करना गलत नहीं माना था। तब उस विवाद का क्या परिणाम हुआ? भारतीय मानस पटल पर इसका क्या प्रभाव पड़ा या जीत किसकी हुई ? परपराओं की या बदलती परिस्थितियों की, इन बातों पर प्रबुद्धों द्वारा विशेष चिंतन किया जाना चाहिए।

मेरी मान्यता है कि आस्थावादी मानव चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष दोनों ही अपनी पूजा-भक्ति एवं किए गए कर्मों से पुण्य कमाकर तथाकथित बैकुंठ या स्वर्ग जाना चाहता है, फिर पूजन-अर्चन में प्रतिबंध या बंदिशें क्यों?

हमारे वेदों में कहा गया है कि जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवताओं का वास होता है। अतः वर्तमान में भी जब महिलाएँ अंतरिक्ष तक जा रही हैं, तब इनको प्रात्साहित करना एक तरह से पुरुषवर्ग का दायित्व ही है। समाज बदल रहा है, यह सबको समझना होगा। आईये, हम महिला-पुरुष समानता का आलोक फैलाएँ और ईश्वर की प्रत्येक सन्तान हेतु पवित्र वातावरण बनाएँ।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Hemant Bawankar

अतिसुन्दर विचार