डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “वक्त फिर करवट बदलेगा ”.)

☆ किसलय की कलम से # 35 ☆

☆ वक्त फिर करवट बदलेगा ☆

वर्तमान में मानवीय मूल्यों के होते क्षरण से आम आदमी की चिंता एवम् खिन्नता स्वाभाविक है। हम पौराणिक कथाओं पर दृष्टिपात करें तो धरा-गगन का अन्तर देख अन्तर्द्वन्द्व चीत्कार में बदलने लगता है। हमने तो पढ़ा है कि पिता का वचन मान प्रभु राम चौदह वर्ष के लिए वनवास को चले गए थे। अनुज भरत ने राजपाट त्याग अपने भाई का इन्तजार महलों की जगह कुटिया में रह कर किया था। पिता की खुशी के लिए देवव्रत ने भीष्म प्रतिज्ञा ली थी। सीता, राधा, सुदामा, यशोदा, हरिश्चन्द्र से अब के महाराणा प्रताप, लक्ष्मी, दुर्गा और तो और विवेकानन्द से गांधी तक देखने के पश्चात लगता है कि हम कितने बदल गए हैं। हम वे रिश्ते, वे आदर्श, वह त्याग और प्रेम क्यों नहीं कर पाते? हम स्वार्थ को छोड़कर परोपकारोन्मुखी क्यों नहीं होते?

हम आज के भौतिक सुख को मानव जीवन का उद्देश्य मान बैठे हैं। आज सबसे ज्यादा बदलाव हमारे चरित्र एवं राजनीति में दिखाई देता है। महाभारत में हमने पढ़ा है- युद्ध समाप्ति के पश्चात लोग एक दूसरे के सैन्य शिविरों में जाकर कुशल – क्षेम भी पूछा करते थे। वार्तालाप भी किया करते थे।

जुबान की कीमत किसी गिरवी रखी जाने वाली वस्तु से कहीं अधिक होती थी, लेकिन आज पीछे से छुरा घोंपना, झूठ-फरेब करना, स्वार्थ की चाह में निकटस्थों को भी ताक में रखना आम बातें हो गई हैं। उन सब में एक बड़ा कारण हमारी सोच में बदलाव का भी है। हमने अपनी सोच के अनुरूप एक नई दुनिया गढ़ ली है। जैसे ए.सी., कार, कोठी, ओहदे और पैसे आज श्रेष्टता के मानक बन गए हैं। सच्चाई, ईमानदारी, परोपकार, भाईचारा और न्याय-धर्म गौण होते जा रहे हैं। इन्हें अपनाने वाला आज बेवकूफों की श्रेणी में गिना जाने लगा है।

यदि हम उपरोक्त बातों पर गौर करें तो ये क्रियाकलाप हमें अविवेकी प्राणियों के नजदीक ले जाते हैं, जिन्हें वर्तमान के अतिरिक्त अगला व पिछला कुछ भी नहीं दिखता। आज हम न भविष्य के लिए कुछ करना चाहते हैं और न ही हमने अब तक कुछ नि:स्वार्थ भाव से किया। क्या मरणोपरान्त समाज हमें स्मृत रखेगा, ऐसे भाव अब हमारे मस्तिष्क में कम ही आते हैं। आज आप ए.सी. और पंखों के बिना हरे-भरे वृक्षों और हवादार मकानों में क्यों नहीं रहते। आप प्राकृतिक प्रकाश और ताजे जल का उपयोग क्यों नहीं करते? आप साइकिल और पैदल चलने को महत्त्व क्यों नहीं देते? तो हम जानते हैं कि आप यही कहेंगे कि समय की बचत और व्यक्तिगत सुविधाओं हेतु यह सब करना पड़ता है। ये बातें हम साठ साल की उम्र के पहले करते हैं। साठ पार होते ही आपको सभी प्रकृति से जुड़ी बातें और अनुकरणीय उपदेश याद आने लगते हैं। आप फिर प्रातः भ्रमण शुरू करते हैं, तेल-घी-मीठा से परहेज करते हैं। धीरज, संतुष्टि और पछतावा करते हैं। जिनकी उपेक्षा की थी उन्हीं के लिए तरसते हैं। धन-दौलत, प्रतिष्ठा और अपनी शक्ति पर अकड़ने वाले यही लोग दो मीठी बातों और जरा-जरा से मान-सम्मान की आशा करते हैं। अथवा हम यूँ कह सकते हैं कि उन्हें तब जाकर आभास होता है कि जिसे श्रेष्ठ जीवन जीना समझना था वह तो सब उनकी झूठी शान थी। असली जीना तो प्रकृति के साथ जीना होता है, सादगी और ईमानदारी के साथ जीना होता है। भौतिक सुखों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण स्वस्थ जीवन होता है, यह बात समझते-समझते देर हो चुकी होती है।

आखिर ये बदलाव आया कैसे? क्या गुरुकुल की जगह वर्तमान शिक्षा इसका कारण है? क्या भारतीय संस्कृति से परे होते जाना इसका कारण है? क्या पश्चिमीकरण ने हमारे भौगोलिक वातावरण में असंतुलन बढ़ाया है? क्या कुछ आवश्यक उपलब्धियों ने हमें पंगु बनाना शुरू कर दिया है?

हम कभी भी यह नहीं कहना चाहेंगे कि ज्ञान और विकास की आलोचना हो। नई तकनीकि का उपयोग न हो। हम तो बस यह कहना चाहते हैं कि सुख, शांति और स्वास्थ्य की कीमत पर कोई गलत कार्य, कोई विकास और कोई भी उच्च तकनीकि मानव जीवन के लिए घातक है। जब मानव ही नहीं रहेगा तो सारी कवायद के क्या मायने होंगे? हम फिर वहीं पहुँच जाते हैं, सोच के समीकरण पर। हमें फिर से सच्ची मानवता की ओर बढ़ना होगा।

हमारी शुरुआत ही दूसरों की प्रेरणा बनेगी। आज भागमभाग और उहापोह भरी जिन्दगी से लोग तंग आने लगे हैं। बदलते परिवेश और परिस्थितियों के कुप्रभाव आज देश-विदेश में पुनः जीवनशैली बदलने हेतु बाध्य करने लगे हैं। सामाजिक और मानसिक चेतना की रफ्तार धीमी होती है लेकिन आगे चलकर यह हमारे जीवन जगत में बदलाव अवश्य लाएगी। इसके लिए हमें सर्वप्रथम भौतिक सम्पन्नता से कुछ तो दूरी बनाना ही होगी। हमें सादगी, ईमानदारी, परोपकार, प्रेम-भाईचारा और सौजन्यता को अपनाना होगा। ये बातें आज जरूर सबको असामयिक और गैर जरूरी लग रही हैं, लेकिन यह भी सच है कि आने वाला वक्त पुनः करवट बदलेगा, क्योंकि बदलाव प्रकृति का नियम है।

इसलिए आईए, क्यों न इस बदलाव की शुरुआत हम किसी दूसरे का इन्तजार किए बगैर आज स्वयं से ही करें।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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विजय तिवारी " किसलय "

ई-अभिव्यक्ति में प्रकाशन हेतु हम आदरणीय अग्रज श्री बावनकर जी के अंतस से आभारी हैं।

Hemant Bawankar

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