श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की शृंखला “प्रमोशन…“ की समापन कड़ी।

☆ आलेख # 89 – प्रमोशन… भाग –7 समापन किश्त ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रिजल्ट आने वाला है की खबर कुछ दिनों से ब्रांच में चल रही थी या फिर फैलाई जा रही थी. हर खबर पर मि.100% का दिल धक-धक करने लगता. फिर शाखा में उनके एक साथी भी थे जिनका प्रमोशन से कोई लेना देना नहीं था पर इनकी लेग पुलिंग का मज़ा लेने में उनसे कोई भी मौका नहीं छोड़ा जा सकता था. रोज सामना होते ही “मिठाई का आर्डर क्या आज दे दें” सुन-सुन कर 100% बेचैन होते-होते पकने की कगार पर आ गये थे. जो बाकी चार थे उनका जवाब हमेशा यही रहता कि “आर्डर कर दो उसमें क्या पूछना. हम लोग तो पैसे देने वाले नहीं हैं. आखिर वो दिन आ ही गया जब रिजल्ट आने की शत प्रतिशत संभावना थी क्योंकि ये खबर हेड ऑफिस के किसी परिचित ने शाखा प्रबंधक को फोन पर कहा था.

उस दिन जो कि शनिवार था, मि. 100% के घर में बहुत सारी काली चीटियां अचानक न जाने कहाँ से निकल आईं. मिसेज़ 100%की दायीं आंख फड़क रही थी और वो भ्रमित थीं कि दायीं आंख का फड़कना शुभ होता है या बाईं आंख का. उस जमाने में गूगल,  इंटरनेट, कंप्यूटर मोबाइल नहीँ होता था कि कनफर्म किया जाय कि कौन सी आंख का फड़कना शुभ समाचार लाता है. जो भी गूगल थे वो पड़ोसी थे और उनसे ये सब शेयर करना घातक हो सकता था. मि. 100% के पास एक ही दिल था और वही धड़क रहा था जोर जोर से. खैर उनके द्वारा हनुमानजी के दर्शन करते हुये शाखा में उपस्थिति दर्ज की गई.

शनिवार पहले हॉफ डे हुआ करता था तो काउंटर पर भीड भाड़ सामान्य से ज्यादा थी. पर अधिक काम होने के कारण रिजल्ट के तनाव से मन हट गया था. ठीक दो बजे जब हॉल पब्लिक से खाली हुआ तो फोन की लंबी घंटी बजी. सब समझ गये कि ये तो लोकल कॉल नहीं है. शाखा प्रबंधक महोदय ने लोकल सेक्रेटरी को बुलाया और दोनों के बीच गंभीरतापूर्वक वार्तालाप हुआ. सभी प्रत्याशियों सहित सभी की उत्सुकता चरम पर पहुँच गई. ब्रांच का रिजल्ट परफारमेंस 80% था और जो सिलेक्ट लिस्ट में नहीं थे, वो थे मिस्टर 100%.

हॉल में बधाइयों की हलचल से भारी थी मिस्टर 100% के “पास “नहीं होने की खामोशी, आश्चर्य और खबर पर अविश्वास. पर सूचना को चुनौती कोई भी नहीं दे पा रहा था. लोकल सेक्रेटरी का बाहर निकल कर उन्हें बाईपास करते हुये बाकी चारों से मिलकर बधाई देना और स्टाफ की भेदती नजरों से मि.100% समझ गये कि वे यह टेस्ट पास नहीं कर पाये. निराशा से ज्यादा शर्मिंदगी उन्हें खाये जा रही थी और वे भी सोच रहे थे कि काश ये धरती याने शाखा का फ्लोर फट जाये और वे करेंट एकाउंट डेस्क से सीधे धरती में समा जायें. रामायण सीरियल को वह दृश्य उनके मन में चल रहा था जब सिया, अपने राम को छोड़कर धरती में समा गईं थीं. ये पल सम्मान, इमेज़, आत्मविश्वास, कर्तव्य निष्ठा सब कुछ हारने के पल थे.

शाखा में चुप्पी थी, जश्न का माहौल नदारद था, ठिठोली करने वाले खामोश थे और शाखा प्रबंधक गंभीर चिंतन में व्यस्त. शाखा की सारी हलचल हॉल्ट पर आ गई थी. मि. 100% का मन तो कर रहा था शाखा प्रबंधक कक्ष में जाने का पर छाती हुई घोर निराशा उन्हेँ रोक रही थी.

लगभग आधा घंटे बाद हॉल की खामोशी को चीरती फिर लंबी घंटी बजी. शाखा प्रबंधक इस कॉल पर कुछ देर बात करते रहे और फिर उन्होंने इस बार लोकल सेक्रेटरी को नहीं बल्कि मिस्टर 100% को बुलाया. सिलेक्ट लिस्ट में कोई चूक नहीं हुई थी, दरअसल मिस्टर 100%, लीगली रुके हुये प्रशिक्षु अधिकारी के टेस्ट में पास हुये थे. इस जीत का “हार” बड़ा था, पुरस्कार बड़ा था जो उनके 100% को साकार कर रहा था.

और फिर शाखा के मुख्य द्वार से सेठ जी अपने प्रशिक्षु पुत्र के साथ लड्डू लेकर पधारे. इस बार ये लड्डू उनके खुद की नहीं बल्कि शाखा की खुशियों में शामिल होने का संकेत थे.

विक्रम बेताल के इस प्रश्न का उत्तर भी बुद्धिमान पाठक ही दे सकते हैं कि मि. 100% एक टेस्ट में फेल होकर दूसरे टेस्ट में कैसे पास हो गये जबकि दूसरे टेस्ट में प्रतिस्पर्धा कठिन और चयनितों की संख्या कम होती है.

इतिश्री

अरुण श्रीवास्तव

ये मेरी कथा, कौन बनेगा करोड़पति के विज्ञापन से प्रभावित है, जो डब्बा की उपाधि से प्रचलित अभय कुमार की कहानी है. विज्ञापन के विषय में ज्यादा लिखना आवश्यक नहीं है क्योंकि ये तो प्राय: सभी देख चुके हैं. गांव के स्कूल के जीर्णोद्धार के लिये 25 लाख चाहिये तो गांव के मुखिया जी के निर्देशन में सारे मोबाइल धारक KBC में प्रवेश के लिये लग जाते हैं, किसी और का तो नहीं पर कॉल या नंबर कहिये लग जाता है “डब्बा” नाम के हेयर कटिंग सेलून संचालक का जो प्राय: अशिक्षित रहता है. तो पूरे गांववालों द्वारा माने गये इस अज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम के लिये तैयार करने की तैयारी के पीछे पड़ जाता है पूरा गांव. ये तो तय था कि एक अल्पज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम जिताने के लिये असंभव प्रयास किये जा रहे थे, किसी चमत्कार की उम्मीद में, जो हम अधिकांश भारतीयों की आदत है. पर जब परिणाम आशा के अनुरूप नहीं मिला तो सारे गांववालों ने डब्बा को उठाकर कचरे के डब्बे में डाल दिया. ये हमारी आदत है चमत्कारिक सपनों को देखने की और फिर स्वाभाविक रूप से टूटने पर हताशा की पराकाष्ठा में टूटे हुये सपनों को दफन कर देने की. गांव का सपना उनके स्कूल के पुनरुद्धार का था जो वाजिब था, केबीसी में कौन जायेगा, जायेगा भी या नहीं, चला भी गया तो क्या पच्चीस लाख जीत पायेगा, ये सब hypthetical ही तो था. पर यहां से डब्बा के घोर निराशा से भरे जीवन में उम्मीद की एक किरण आती है उसके पुत्र के रूप में जो हारे हुये साधनहीन योद्धा को तैयार करता है नये ज्ञान रूपी युद्ध के लिये. ये चमत्कार बिल्कुल नहीं है क्योंकि अंधेरों के बीच ये रोशनी की किरण हम सब के जीवन में कभी न कभी आती ही है और हम इस उम्मीद की रोशनी को रस्सी की तरह पकड़ कर, असफलता और निराशा के कुयें से बाहर निकल आते हैं. वही चमत्कार इस विज्ञापन में भी दिखाया गया है जब डब्बा जी पचीस लाख के सवाल पर बच्चन जी से फोन ए फ्रेंड की लाईफ लाईन पर मुखिया जी से बात करते हैं सिर्फ यह बतलाने के लिये कि 25 लाख के सवाल का जवाब तो उनको मालुम है पर जो मुखिया जी को मालुम होना चाहिये वो ये कि उनका नाम अभय कुमार है, डब्बा नहीं.

हमारा नाम ही हमारी पहली पहचान होती है और हम सब अपनी असली पहचान बनाने के लिये हमेशा कोशिश करते रहते हैं जो हमें मिल जाने पर बेहद सुकून और खुशियां देती है. सिर्फ हमारे बॉस का शाम को पीठ थपाथपा कर वेल डन डियर कहना इंक्रीमेंट से भी ज्यादा खुशी देता है. लगता है कि इस ऑफिस को हमारी भी जरूरत है. हम उनकी मजबूरी या liability नहीं हैं.

विज्ञापन का अंत बेहद खूबसूरत और भावुक कर देने वाला है जब इस विज्ञापन का नायक अभय कुमार अपने उसी उम्मीद की किरण बने बेटे को जिस स्कूल में छोड़ने आता है उस स्कूल का नाम उसके ही नाम अभय कुमार पर ही होता है. ये अज्ञान के अंधेरे में फेंक दिये गये, उपेक्षित अभयकुमार के सफर की कहानी है जो लगन और सही सहारे के जरिये मंजिल तक पहुंच जाता है जो कि उसके गांव के स्कूल का ही नहीं बल्कि उसका भी पुनरुद्धार करती है. ये चमत्कार की नहीं बल्कि कोशिशों की कहानी है अपनी पहचान पाने की.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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