श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना भीतर का बसन्त सुरभित हो….। )
☆ तन्मय साहित्य #84 ☆ भीतर का बसन्त सुरभित हो …. ☆
पतझड़ हुए स्वयं,
बातें बसन्त की करते
ऐसा लगता है-
अंतिम पल में ज्यों
दीपक कुछ अधिक
चमकता है।
ऋतुएं तो आती-जाती है
क्रम से अपने
पर पागल मन देखा करता
झूठे सपने,
पहिन फरेबी विविध मुखौटे
खुद को ठगता है।
ऐसा लगता है…….
बचपन औ’ यौवन तो
एक बार ही आये
किन्तु बुढापा अंतिम क्षण तक
साथ निभाये,
भूल इसे क्यों मन अतीत में
व्यर्थ भटकता है।
ऐसा लगता है……….
स्वीकारें अपनी वय को
मन और प्राण से
क्यों भागें डरकर
हम अपने वर्तमान से
यौवन के भ्रम में जो मुंह का
थूक निगलता है
ऐसा लगता है……….
भीतर का बसन्त
सुरभित हो जब मुस्काये
सुख,-दुख में मन
समरसता के गीत सुनाए,
आचरणों में जहाँ शील,
सच औ’ शुचिता है।
तब ऐसा लगता है।।
स तरह सीप में रत्न पलता रहा।
सिलसिला भोर तक यूं ही चलता रहा।।
© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0
मो. 9893266014
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈