डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक बेहद मजेदार व्यंग्य ‘मेरे ग़मगुसार‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – मेरे ग़मगुसार ☆
एक दिन ऐसा हुआ कि अचानक मेरी पत्नी का पाँव टूट गया। आजकल हाथ-पाँव टूटने का इलाज इतना मँहगा हो गया है कि दुख बाद में होता है, पहले खर्च की चिन्ता में दिमाग़ सुन्न हो जाता है। गिरने वाले पर सहानुभूति की जगह गुस्सा आता है कि इसने कहाँ से मुसीबत में डाल दिया। हमदर्दी के दो बोल बोलने के बजाय पतिदेव मुँह टेढ़ा करके पूछने लगते हैं, ‘पाँव संभाल कर नहीं रख सकती थीं?’ या ‘सीढ़ियों से उतरते में देख कर पाँव नहीं रख सकती थीं?’
कहने की ज़रूरत नहीं कि पत्नी की टाँग टूटने से मेरी कमर टूट गयी। करीब दो हज़ार की चोट लगी। पत्नी प्लास्टर चढ़वा कर आराम करने और सेवा कराने की स्थिति में आ गयीं। (नोट- पति से सेवा कराने पर पत्नी नर्क की अधिकारी बनती है। )
प्लास्टर वगैर से फुरसत पाकर उन सुखों का इंतज़ार करने लगा जो इस तरह की दुर्घटना के फलस्वरूप मिलते हैं, यानी पड़ोसियों और मुहल्लेवालों की सहानुभूति बटोरना। पत्नी से पूछ लिया कि सहानुभूति दिखाने के लिए आने वालों की ख़ातिर के लिए घर में पर्याप्त चाय-चीनी है या नहीं।
मुहल्ले के मल्होत्रा साहब के आने की तो उम्मीद नहीं थी क्योंकि पिछले साल जब उनकी पत्नी स्कूटर से लुढ़क कर ज़ख्मी हो गयी थीं, तब मैं उन्हें सहानुभूति दिखाने से चूक गया था। शहर में रिश्ते ऐसे ही काँटे की तौल पर होते हैं।
वर्मा जी के आने का सवाल इसलिए नहीं उठता था क्योंकि दो महीने पहले मैने उन्हें आधी रात को सक्सेना साहब के ईंटों के चट्टे से ईंटें चुराते हुए देखकर सक्सेना साहब को आवश्यक सूचना दे दी थी। तब से वे मुझसे बेहद ख़फ़ा थे।
बाकी लोगों के आने की उम्मीद थी और मैं उसी उम्मीद को लिये दरवाज़े की तरफ ताकता रहता था। कुछ रिश्तेदार आ चुके थे और श्रीमतीजी उन्हें अपना प्लास्टर इस तरह दिखा चुकी थीं जैसे कोई नयी साड़ी खरीद कर लायी हों।
जिस दिन प्लास्टर चढ़ा उस दिन शाम को बैरागी जी सपत्नीक आये। थोड़ा-बहुत दुख प्रकट करने के बाद वे आधा घंटा तक अपनी टाँग के बारे में बताते रहे जो पन्द्रह साल पहले टूटी थी। इस धूल-धूसरित इतिहास में भला मेरी क्या दिलचस्पी हो सकती थी, लेकिन वे अपनी पैंट ऊपर खिसकाकर मुझे मौका-मुआयना कराते रहे और मैं झूठी दिलचस्पी दिखाते हुए सिर हिलाता रहा।
जैसे ही उन्होंने थोड़ा दम लिया, मैंने पत्नी की टाँग को फिर फोकस में लाने की कोशिश की। लेकिन अफसोस, अब तक बैरागी जी टूटी टाँगों से ऊपर उठकर हमारे टीवी की तरफ मुखातिब हो गये थे, जिस पर ‘भाभीजी घर पर हैं’ सीरियल शुरू हो गया था। वे अपनी पत्नी से बोले, ‘अब यह प्रोग्राम देख कर ही चलेंगे। अभी चलने से मिस हो जाएगा। ’मैं खून के घूँट पीता शिष्टाचार दिखाता रहा। लगता था वे सहानुभूति दिखाने नहीं, सिर्फ चाय पीने, अपनी टाँग का पुराना किस्सा सुनाने और टीवी देखने आये थे। उनके जाने के बाद मैं बड़ी देर तक दाँत पीसता रहा।
पत्नी की टाँग तो टूटी ही थी, बैरागी जी ने मेरा दिल तोड़ दिया था। अब उम्मीद दूसरे पड़ोसियों से थी।
दूसरे दिन लल्लू भाई भाभी के साथ आये। उन्होंने पूरे विधि-विधान से सहानुभूति दिखायी। पत्नी का प्लास्टर इस तरह आँखें फाड़कर देखा जैसे ज़िन्दगी में पहली बार प्लास्टर देखा हो। पन्द्रह मिनट में पन्द्रह बार ‘बहुत अफसोस हुआ’ कहा। मेरा दिल खुश हुआ। लल्लू भाई ने सहानुभूति की रस्म पूरी करने के बाद ही चाय का प्याला ओठों से लगाया।
सहानुभूति के बाद लल्लू भाई चलने को हुए और हरे सिग्नल की तरह मैंने उनके सामने सौंफ-सुपारी पेश कर दी। तभी टीवी पर ‘जीजाजी छत पर हैं’ सीरियल शुरू हो गया और लल्लू भाई दुनिया भूल कर उस तरफ मुड़ गये। उस दिन का एपिसोड भी ख़ासा दिलचस्प था। लल्लू भाई थोड़ी ही देर में ताली मार मार कर इस तरह हँस रहे थे जैसे अपने ही घर में बैठे हों। साफ था कि उन्होंने फिलहाल जाने का इरादा छोड़ दिया था।
थोड़ी देर में चोपड़ा जी सपत्नीक आ गये। आते ही उन्होंने ‘अफसोस हुआ’ वाला जुमला बोला। मैं आश्वस्त हुआ कि फिर मिजाज़पुर्सी का वातावरण बनेगा। चोपड़ा जी दुखी मुँह बनाये लल्लू भाई की बगल में बैठ गये। लेकिन दो मिनट बाद ही उनका मुखौटा गिर गया और वे भी लल्लू भाई की तरह ताली पीट पीट कर ठहाके लगाने लगे। मेरा दिल ख़ासा दुखी हो गया। एक तरफ मैं सहानुभूति की उम्मीद में उन्हें चाय पिला रहा था, दूसरी तरफ वे हँस हँस कर लोट-पोट हो रहे थे।
कार्यक्रम ख़त्म होने और लल्लू भाई के जाने के बाद चोपड़ा जी ने अपने मुँह को खींच-खाँच कर थोड़ा मातमी बनाया और हमदर्दी की बाकी रस्म पूरी की।
मैं समझ गया कि टीवी के रहते मेरे घर में हमदर्दी का सही वातावरण नहीं बनेगा। दूसरे दिन मैंने टीवी को दूसरे कमरे में रखवा दिया। सोचा, अब एकदम ठोस हमदर्दी का वातावरण रहेगा।
अगली शाम मेरे मुहल्ले के ठाकुर साहब सपत्नीक पधारे। मैंने सोच लिया कि अब हमदर्दी के सिवाय कुछ और नहीं होगा। ठाकुर साहब ने भी बाकायदा हमदर्दी की रस्में पूरी कीं। लेकिन चाय पीते वक्त लगा जैसे उनकी आँखें कुछ ढूँढ़ रही हों।
दो चार बार खाँसने के बाद उन्होंने पूछा, ‘आपका टीवी कहाँ गया?’
मैं तुरन्त सावधान हुआ, कहा, ‘खराब हो गया।’
उनके चेहरे पर अब असली दुख आ गया। बोले, ‘यह आपने बुरी खबर सुनायी। मेरा टीवी भी खराब है। अभी आठ बजे ‘मुगलेआज़म’ फिल्म आनी है। सोचा था आपको हमदर्दी दे देंगे और फिल्म भी देख लेंगे। यह तो बहुत गड़बड़ हो गया।’ सुनकर मुझे लगा वे मुझसे ज़्यादा हमदर्दी के काबिल हैं।
वे अपनी पत्नी से बोले, ‘जल्दी चलो, तिवारी जी के यहाँ चलते हैं।’ फिर वे हड़बड़ी में विदा लेकर चलते बने।
अगले दिन मुहल्ले की महिलाओं का जत्था आ गया। फिर उम्मीद बँधी। उन्होंने पत्नी का प्लास्टर देखकर खूब हल्लागुल्ला मचाया। मुझे भी अच्छा लगा। लेकिन इसके बाद वे सब ड्राइंगरूम में बैठ गयीं और चाय पीते हुए ऐसे बातें करने लगीं जैसे पिकनिक पर आयी हों। अब वे मेरी पत्नी की टाँग भूलकर चीख चीख कर यह बतला रही थीं कि किस सीरियल का हीरो बड़ा ‘क्यूट’ है और कौन सी हीरोइन पूरी बेशरम है। मुझे डर लगने लगा कि इन अहम मुद्दों पर यहाँ मारपीट हो जाएगी। मेरा जी फिर खिन्न हो गया।
घंटे भर तक मेरा घर सिर पर उठाने के बाद पत्नी को ‘बाय’ और ‘सी यू’ बोल कर वे विदा हुईं।
इन दुर्घटनाओं के बाद मेरा पड़ोसियों पर से भरोसा उठ गया है। असली हमदर्दी की उम्मीद जाती रही है और पत्नी की टाँग पर हुआ खर्च मुझे बुरी तरह साल रहा है।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
बहुत ही शानदार व्यंग, बधाई