डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 90 ☆

☆ व्यंग्य – संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत

[1]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

आज आपकी पत्रिका का नया अंक देखा। देख कर चित्त प्रसन्न हो गया। मुझे पता नहीं था कि हमारे देश में इतनी बढ़िया पत्रिका निकल रही है। कवर बहुत सुन्दर बन पड़ा है। भीतर की सामग्री की जितनी तारीफ की जाए, कम है। कविताएं, कहानियाँ,निबंध, सब एक से बढ़कर एक हैं। पत्रिका आपकी योग्यता और सूझबूझ का जीता-जागता प्रमाण है। आपकी देख-रेख में पत्रिका दिन-दूनी रात-चौगुनी उन्नति करेगी इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं। आपकी विद्वत्ता के बारे में बहुत सुना था, अब प्रत्यक्ष देख लिया।
एक परिचर्चा ‘साली, आधी घरवाली’ सेवा में भेज रहा हूँ। इसे पत्रिका में स्थान देकर अनुगृहीत करें। इसमें भाग लेने वाले सभी लोग मेरे नगर के बुद्धिजीवी हैं। आप पायेंगे कि परिचर्चा अत्यन्त मनोरंजक और समसामयिक है। इससे पहले ‘ससुराल की पहली होली’ पर मेरी एक परिचर्चा एक स्थानीय पत्र में छपी थी जो अत्यधिक सराही गयी थी और जिसकी नगर के कोने कोने में चर्चा हुई।

परिचर्चा में भाग लेने वालों के फोटो और मेरा फोटो जरूर छापें। फोटो संलग्न हैं।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[2]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

आपके पत्र के साथ मेरी परिचर्चा वापस मिली। आपने लिखा है कि परिचर्चा घटिया है। पुनर्विचार और आत्ममंथन के बाद मुझे भी लगा कि परिचर्चा का विषय पर्याप्त स्तरीय नहीं है। मैं आपके विचार से सहमत हूँ।

एक दूसरी परिचर्चा भेज रहा हूँ जिसका विषय है ‘पिया बसे परदेस, कैसे मिटे कलेस’। यह परिचर्चा बिलकुल मौलिक और अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें अपने पतियों से विलग रहने वाली पत्नियों की व्यथा को खोल कर रख दिया गया है। अभी तक किसी परिचर्चाकार ने इस विषय को नहीं उठाया। इस परिचर्चा के आयोजन में मुझे जो श्रम और समय देना पड़ा है वह कहने की बात नहीं है। मुझे विश्वास है कि यह परिचर्चा आपकी पत्रिका के स्तर में चार चाँद लगा देगी।

भाग लेने वालों के फोटो और मेरा फोटो जरूर छापें। फोटो संलग्न हैं।

आपका।

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[3]

संपादक जी.

सप्रेम नमस्कार।

दूसरी परिचर्चा भी वापस मिली। आपको यह परिचर्चा भी घटिया लगी, यह पढ़कर दुख हुआ, लेकिन आपका निर्णय सिर-आँखों पर। आपने ठीक लिखा है कि इस परिचर्चा में भाग लेने वाले भी वही लोग हैं जो पहली परिचर्चा में थे। दरअसल मैंने इन बुद्धिजीवियों को दूसरी परिचर्चा के लिए भी पूर्णतया उपयुक्त पाया। इसमें किसी तरह का जोड़-तोड़ नहीं है।

आपका यह अनुमान सही है कि परिचर्चा में भाग लेने वाली कोकिला देवी मेरी धर्मपत्नी हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं एक विदुषी का पति हूँ जो साहित्य और कला की मर्मज्ञ हैं। कोकिला देवी सिर्फ मेरी पत्नी नहीं, मेरी सचिव और सहायक भी हैं। उनके सहयोग से ही मेरी साहित्य-साधना सुचारु रूप से चल रही है।

मुझे लगता है आपकी रुचि परिचर्चाओं में नहीं है, इसलिए इस बार एक मौलिक और मार्मिक कहानी ‘जिगर का धुआँ’ भेज रहा हूँ। आप पायेंगे कि इस कहानी में प्रेम का एक बिलकुल नया कोण खोजा गया है जो आपको संसार की किसी प्रेम-कथा में नहीं मिलेगा। मेरा एक दोस्त इस कहानी को सुनकर दो दिन तक रोता रहा। मेरी पत्नी का विचार है कि इस कहानी की गणना संसार की श्रेष्ठतम प्रेम-कहानियों में होगी, लेकिन मैं एक अत्यन्त विनम्र व्यक्ति हूँ। मैं इस कहानी के संबंध में निर्णय आपके ऊपर छोड़ता हूँ।

फोटो संलग्न है।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[4]

संपादक जी,

आज की डाक से कहानी वापस मिल गयी। हृदय अत्यन्त दुखी हुआ। अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए विवश हूँ कि आपकी पत्रिका भाई-भतीजावाद और ठकुरसुहाती के आधार पर चलती है। जमाना ही ऐसा है, तो भला आप कैसे इन प्रवृत्तियों से मुक्त रहेंगे?

मैं इस दुखद निष्कर्ष पर भी पहुँचा हूँ कि आप में रचना के गुणों को परखने की पर्याप्त क्षमता नहीं है। आखिर हीरे को जौहरी ही परख सकता है, और हर आदमी जौहरी नहीं हो सकता। मैंने आपके पास अत्यन्त महत्वपूर्ण परिचर्चाएं और बढ़िया कहानी भेजी, लेकिन आप उनके गुणों को ग्रहण करने में असमर्थ रहे।
मुझे यह भी शक है कि मेरे कुछ साहित्यिक शत्रुओं ने भितरघात करके आपको मेरे विरुद्ध बरगलाया है और मेरी उज्ज्वल छवि को धूमिल करने का प्रयास किया है। नगर में मुझसे ईर्ष्या करने वालों की कमी नहीं है।

बहरहाल, अब मेरा आपकी पत्रिका को सहयोग देने का कोई इरादा नहीं है। आपकी पत्रिका से ज्यादा अच्छी पत्रिकाएं हैं और आपसे ज्यादा समझदार संपादक भी, जहाँ मेरी रचनाओं की सही कद्र होगी।

नमस्कार।

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[5]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

लगभग तीन माह पूर्व मेरा पत्र आपको मिला होगा। उस वक्त कुछ घरेलू परिस्थितियों के कारण विचलित होकर कुछ ऊटपटाँग लिख गया था। उसे अन्यथा न लें। बाद में मुझे दुख हुआ कि मैं असावधानी में कुछ अप्रिय बातें लिख गया था। आशा है आप मेरी परिस्थिति को समझ कर मेरी बातों का बुरा न मानेंगे और पहले की तरह स्नेह-संबंध बनाये रखेंगे। मैं जानता हूँ कि आप सुयोग्य संपादक हैं और आपकी पत्रिका निष्पक्ष और उच्च स्तर की है।

एक कहानी ‘दिल की दरार’ सेवा में भेज रहा हूँ। मेरे हिसाब से कहानी प्रथम श्रेणी की है। यह पहली कहानी होगी जिसमें नायक हवाई जहाज से कूद कर आत्महत्या करता है। इस दृष्टि से कहानी बिलकुल मौलिक और आधुनिक है। लेकिन आप खुद समझदार हैं, इसलिए ज्यादा कुछ कहना उचित नहीं समझता।

फोटो संलग्न है।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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