श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी होली के रंग की एक रचना बैठे ठाले होली पर एक खजल……. । )
☆ तन्मय साहित्य #88 ☆
☆ बैठे ठाले होली पर एक खजल……. ☆
हुरियारों की शक्लें, होली पर ही अच्छी लगती है
रंग भरे धुंधलेपन में, उम्मीदें सोती, जगती है।
सब में दिखती खोट,गलतियाँ, और अधूरापन उनको
बढ़िया उनको तो केवल, खुद की कविताई लगती है।
तेरे गीत गजल, चौपाई, और घनाक्षरी, मुक्तक छंद
ये सब तो उनको सौतन की, आग लगाई लगती है।
छांछ, दहीं,मक्खन-पनीर, सब तेरे हैं बेस्वाद यहाँ
उनको तो उनके वाली ही, दुध मलाई लगती है।
छिपन छिपैया, ता-ता थैया, खेल रहे कविताओं में
बिना बीज खरपतवारों की, धूम मचायी लगती है।
मदिरा, भांग नशे के खातिर, नहीं कमी है नोटों की
बच्चों की पिचकारी, रंगों में, मंहगाई लगती है।
जैसे-तैसे टीप, टाप के, नकल मार कर पास हुए
आगे भइए! इत कुंआ, उत गहरी खाई लगती है।
चाहे नशा चढ़ा हो कितना, फिर भी नहीं भूलते हैं
अच्छे खां को खुद की बीबी, क्रूर कसाई लगती है।
पंगत में स्वभाव गत नजरें, तकती है इक-दूजे को
अपनी पत्तल कमतर, ज्यादा भरी पराई लगती है।
गिरगिट हार गए, इस रंग बदलते हुए आदमी से
परत दर परत चेहरे पर, की हुई पुताई लगती है।
संसद में वेतन-भत्ते,अपने इक मत हो पास किए
घर ही घर में खुद ही प्रसूता, खुद ही दाई लगती है।
बैठे ठाले फुरसत में यूँ ही, ये बातें लिख डाली
कब के अपन हो लिए, होली अब हरजाई लगती है।
© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0
मो. 9893266014
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
वाह, बहुत बढ़िया