डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है षष्ठम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 67 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – षष्ठम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए षष्ठम अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

अध्याय 6 -ध्यान योग

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को ध्यान योग के गूढ़ रहस्य को समझाया

संन्यासी-योगी वही, करता जो कर्तव्य।

पाने की ना चाह है, करे धर्म औ” यज्ञ।। 1

 

योगी सच्चा है वही, त्यागे इन्द्रिय भोग।

शेष रहे ना लालसा,करे भक्तिमय योग।। 2

 

करता साधक भक्ति का, जो अष्टांगी योग।

योग सिद्ध  ऐसा पुरुष, करें न भौतिक भोग।। 3

 

योगारूढ़ी है वही, करे भोग का त्याग।

कर्म सकामी ना करे, चित्त-भक्ति  अनुराग।। 4

 

अपने मन का मित्र भी, कभी शत्रु बन जाय।

मन को जो वश में करे, वही सिद्धि को पाय।। 5

 

मन को जीते जो मनुज, मित्र श्रेष्ठ बन जाय।

जो मन के वश में हुआ, दुख को गले लगाय।। 6

 

मन के जीते जीत है, मन के हारे हार।

सुख-दुख, यश-अपयश सभी, मन खेल ही उपहार।। 7

 

ज्ञान और अनुभूति से, हो योगी संतुष्ट।

निर्विकार समभाव से,दे न किसी को कष्ट।। 8

 

शत्रु-मित्र सबके लिए, रखे प्रेम का भाव।

ऐसा योगी श्रेष्ठ है, रखे सदा समभाव।। 9

 

योगी मन वश में रखे, आत्म ईश में लीन।

मुक्त लालसा से रहे, तन-मन ईशाधीन।। 10

 

सदा योग अभ्यास का , पावन हो स्थान।

हो मन इंद्रिय से परे, रमे ईश में ध्यान।। 11

 

पावन आसन बैठकर, करे योग अभ्यास।

मेरा ही चिंतन करे, मन हो मेरे पास।। 12

 

तन-ग्रीवा-सिर साधकर, करे योग अभ्यास।

दृष्टि नासिका पर रखे , मन में दृढ़ विश्वास।। 13

 

नित्य करे अभ्यास को, भय-संशय से दूर।

योगी विषय विमुक्त हो, प्रेम ईश  भरपूर।। 14

 

सभी कर्म, मन-देह भी, प्रभु में हों आसक्त।

ऐसा योगी अंततः, हो जाता है मुक्त।। 15

 

योगी है वो ही सफल, रखे नियम आहार।

जागे, सोए नियमतः, पिए प्रेम का सार।। 16

 

खान-पान या जागरण, निद्रा उचित विहार।

बढ़े योग अभ्यास से , मिटते कष्ट अपार।। 17

 

मनसा-वाचा-कर्मणा, करे योग अभ्यास।

मिट जाती सब लालसा, मिलता योग प्रकाश।। 18

 

 

योगी मन वश में रखे, आत्मतत्व में ध्यान।

दीपक जैसे बिन हवा, जलता सीना तान।। 19

 

योगाभ्यासी मन बने, संयम करे शरीर।

योग सिद्ध ऐसा मनुज, कहें समाधि सुवीर।। 20

 

मिले सिद्धि जब इस तरह, मन से स्वे मिल जाय।

दिव्य बनें सब इन्द्रियाँ, दिव्य सुखों को पाय।। 21

 

सिद्ध पुरुष को लाभ या,हानि न किंचित् भास

है सन्तोषी धन बड़ा, मन ही मन पूरित उल्लास। 22

 

सिद्धि मिले जब मनुज को, करें न विचलित कष्ट।

सभी दुखों से दूर हो, खुलें ज्ञान के पृष्ठ।। 23

 

श्रद्धायुत संकल्प से, करें योग अभ्यास।

इच्छाओं को त्याग दें, करें आत्म में वास।। 24

 

सन्मति से विश्वास से , रहे समाधी लीन।

स्थित मन हो आत्मा, पावन बने नवीन।। 25

 

अस्थिर चंचल वृत्ति मन, कसता रहे लगाम।

मन को वश में रख सदा, सिद्ध होयँ सब काम।। 26

 

मन स्थिर मुझमें करें, जो भी पुरुष महान।

दिव्य सुखों की सिद्धि हो, करते प्रभु कल्यान।। 27

 

आत्म संयमी निग्रही, करते योगाभ्यास।

सब पापों से मुक्त हो, आए आत्म प्रकाश।। 28

 

सिद्धि योगि वो ही मनुज, सबमें मुझको पाँय।

घट-घट वासी हूँ, समझ सबमें प्रेम जतांय।। 29

 

जो देखें सबमें मुझे, मैं रहता सर्वस्य।

प्रकट हुआ मैं देखता, सब भक्तों के दृश्य।। 30

 

योगी वे ही सिद्ध हैं, करे मुझी में ध्यान।

करे समर्पण स्वयं को, करे भक्त गुणगान।। 31

 

योगी सच्चा है वही, सुख-दुख में मुस्काय।

हर प्राणी के भाव को, कर समान दुलराय।। 32

 

अर्जुन उवाच

अस्थिर चंचल मन जहाँ, कठिन बहुत है योग।

नहीं समझ पाया सखे, पल-छिन माँगे भोग।। 33

 

मन चंचल हठ से भरा, रहा बड़ा बलवान।

वायु वेग-सा भागता, भागे तीर समान।। 34

 

श्री भगवान उवाच

कृष्ण कहें कौन्तेय से, ये मन भागे वेग।

होय विरत अभ्यास से, होयँ शांत संवेग।। 35

 

मन चंचल जिसका रहे, लक्ष्य कभी ना पाय।

मन का संयम ध्रुव अटल, विजित होय मुस्काय।। 36

 

अर्जुन उवाच

कृष्ण सुनो मेरी व्यथा, असफल योगी कौन।

भौतिकता के जाल में, टूटे मन का मौन।। 37

 

ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग से , भटकें जो इंसान।

उसकी गति मुझसे कहो, मेरे सखे महान।। 38

 

कृष्ण सुनो तुम प्रार्थना, संशय कर दो दूर।

योगि भोग में यदि रमें, क्या मिल जाता धूर।। 39

 

श्री भगवान उवाच

परहित योगी जो करें , सिद्ध लोक-परलोक।

प्रथा पुत्र मेरी सुनो, जीवन बने अशोक।। 40

 

असफल योगी भोगता, कुछ दिन भौतिक भोग।

अच्छे कुल में जन्म ले ,व्यर्थ न जाता योग।। 41

 

दीर्घकाल तक योग से, यदि वह असफल होय।

जन्म मिले वैभव कुली, योग सदा फल बोय।। 42

 

पूर्वजन्म की चेतना, है दैवी संयोग।

करें साधना ईश की, नित्य भक्तिमय योग।। 43

 

प्रारब्धों के ज्ञान से, योग स्वतः आ जाय।

ऐसा योगी ही सफल, मुझे सर्वदा भाय।। 44

 

कल्मषादि  से शुद्ध हो, ऐसा ज्ञानी भक्त।

जनम-जनम अभ्यास से, जन्म-मरण से मुक्त।। 45

 

योगी-तापस से बढ़ा, ज्ञानी से भी श्रेष्ठ

योगी सबसे उच्च है, आदरणीय यथेष्ठ। 46

 

उत्तम योगी है वही, रखे हृदय में प्रीत।

करे समर्पण स्वयं को, श्रेष्ठ योग की रीत।। 47

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता छठे अध्याय ” ध्यान योग ” का भक्तिवेदांत का तात्पर्य पूर्ण हुआ।

 © डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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