श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ संजय उवाच # 92 ☆ जागरण ☆
माँ, सुबह के कामकाज करते हुए अपने मीठे सुर में एक भजन गाती थीं, “उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है, जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।”
बरसों से माँ का यह स्वर कानों में बसा है। माँ अब भी गाती हैं। अब कुछ शरीर साथ नहीं देता, कुछ भूल गईं तो समय के साथ कुछ भजन भी बदल गये।
यह बदलाव केवल भजन में नहीं हम सबकी जीवनशैली में भी हुआ है। अब 24×7 का ज़माना है। तीन शिफ्टों में काम करती अधिकतम दोहन की व्यवस्था है। रैन और नींद का समीकरण चरमरा गया है। ‘किचन’ में ज़बरिया तब्दील किया जा चुका चौका है, चौके के नियम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ी पड़ी हैं। आधी रात को माइक्रोवेव के ऑन-ऑफ होने और फ्रिज के खुलते-बंद होते दरवाज़े की आवाज़े हैं। टीवी की स्क्रिन में धँसी आँखें प्लेट में रखा फास्ट फूड अनुमान से तलाश कर मुँह में ठूँस रही हैं।
हमने सब ध्वस्त कर दिया है। प्रकृति के साथ, प्राकृतिक शैली के साथ भारी उलट-पुलट कर दिया है। भोजन की पौष्टिकता और उसके पाचन में सूर्यप्रकाश व उष्मा की भूमिका हम बिसर चुके। मुँह अँधेरे दिशा-मैदान की आवश्यकता अनुभव करना अब किवदंती हो चुका। अब ऑफिस निकलने से पहले समकालीन महारोग कब्ज़ियत से किंचित छुटकारा पाने की तिकड़में हैं।
देर तक सोना अब रिवाज़ है। बुजुर्ग माँ-बाप जल्दी उठकर दैनिक काम निपटा रहे हैं। बेटे-बहू के कमरे का दरवाज़ा खुलने में पहला पहर लगभग निपट ही जाता है। ‘हाई प्रोफाइल’ के मारों के लिए तो शनिवार और रविवार ‘रिज़र्व्ड टू स्लिप’ ही है। बिना लांघा रोज होता सूर्योदय देखने से वंचित शहरी वयस्क नागरिकों की संख्या नए कीर्तिमान बना रही है।
कबीरदास जी ने लिखा है-
कबीर सुता क्या करे, जागिन जपे मुरारि
इक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारि।
लम्बे पाँव पसार कर सोने की बेला से पहले हम उठ जाएँ तो बहुत है।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
बहुत सही बात । वीक एन्ड अर्थात लंबी नींद का दिन। साथ ही अपनी संस्कृति की कई रीतियों के साथ भी परिवर्तन आ गए हैं। मुगल कल्चर का असर हम पर उतना नहीं हुआ जितना अंग्रेजों की संस्कृति का हुआहै। व्हाइटस्किन सिन्ड्रोम का असर है।