हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #11 – नया पर्व ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली    । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 11 ☆

 

☆ नया पर्व ☆

दृश्य और अदृश्य की बात अध्यात्म और मनोविज्ञान, दोनों करते हैं। यों देखा जाये तो मनोविज्ञान, अध्यात्म को समझने की भावभूमि तैयार करता है जबकि अध्यात्म, उदात्त मनोविज्ञान का विस्तार है। अदृश्य को देखने के लिए दर्शन, अध्यात्म और मनोविज्ञान को छोड़कर सीधे-सीधे आँखों से दिखते विज्ञान पर आते हैं।

जब कभी घर पर होते हैं या कहीं से थक कर घर पहुँचते हैं तो घर की स्त्री प्रायः सब्जी छील रही होती है। पति से बातें करते हुए कपड़ों की कॉलर या कफ पर जमे मैल को हटाने के लिए उस पर क्लिनर लगा रही होती है। टीवी देखते हुए वह खाना बनाती है। पति काम पर जा रहा हो या शहर से बाहर, उसके लिए टिफिन, पानी की बोतल, दवा, कपड़े सजा रही होती है। उसकी फुरसत का अर्थ हरी सब्जियाँ ठीक करना या कपड़े तह करना होता है।

पुरुष की थकावट का दृश्य, स्त्री के निरंतर श्रम को अदृश्य कर देता है। अदृश्य को देखने के लिए मनोभाव की पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए। मनोभाव की भूमि के लिए अध्यात्म का आह्वान करना होगा। परम आत्मा के अंश आत्मा की प्रचिति जब अपनी देह के साथ हर देह में होगी तो ‘माताभूमि पुत्रोऽहम् पृथ्विया’  की अनुभूति होगी।

जगत में जो अदृश्य है, उसे देखने की प्रक्रिया शुरू हो गई तो भूत और भविष्य के रहस्य भी खुलने लगेंगे। मृत्यु और उसके दूत भी बालसखा-से प्रिय लगेंगे। आँख से  विभाजन की रेखा मिट जायेगी और समानता तथा ‘लव बियाँड बॉर्डर्स’ का आनंद हिलोरे लेने लगेगा।

जिनके जीवन में यह आनंद है, वे ही सच्चे भाग्यवान हैं। जो इससे वंचित हैं, वे आज जब घर पहुँचें तो इस अदृश्य को देखने से आरंभ करें। यकीन मानिये, जीवन का दैदीप्यमान नया पर्व आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

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