हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #15 – धार्मिक पर्यटन की विरासत ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “धार्मिक पर्यटन की विरासत”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 15 ☆

 

☆ धार्मिक पर्यटन की विरासत ☆

 

भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक दृष्टि तथा एक विचार के साथ विकसित हुई है. भगवान शंकर के उपासक शैव भक्तो के देशाटन का एक प्रयोजन  देश भर में यत्र तत्र स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंग  हैं. प्रत्येक  हिंदू जीवन में कम से कम एक बार इन ज्योतिर्लिंगो के दर्शन को  लालायित रहता है. और इस तरह वह शुद्ध धार्मिक मनो भाव से जीवन काल में कभी न कभी इन तीर्थ स्थलो का पर्यटन करता है.द्वादश ज्योतिर्लिंगो के अतिरिक्त भी मानसरोवर यात्रा, नेपाल में पशुपतिनाथ, व अन्य स्वप्रस्फुटित शिवलिंगो की श्रंखला देश व्यापी है.

इसी तरह शक्ति के उपासक देवी भक्तो सहित सभी हिन्दुओ के लिये ५१ शक्तिपीठ भारत भूमि पर यत्र तत्र फैले हुये हैं.मान्यता है कि जब भगवान शंकर को यज्ञ में निमंत्रित न करने के कारण सती देवी माँ ने यज्ञ अग्नि में स्वयं की आहुति दे दी थी तो क्रुद्ध भगवान शंकर उनके शरीर को लेकर घूमने लगे और सती माँ के शरीर के विभिन्न हिस्से भारतीय उपमहाद्वीप पर जिन  विभिन्न स्थानो पर गिरे वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई. प्रत्येक स्थान पर भगवान शंकर के भैरव स्वरूप की भी स्थापना है.शक्ति का अर्थ माता का वह रूप है जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब है शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के स्वांगी है.

भारत की चारों दिशाओ के चार महत्वपूर्ण मंदिर, पूर्व में सागर तट पर  भगवान जगन्नाथ का मंदिर पुरी, दक्षिण में रामेश्‍वरम, पश्चिम में भगवान कृष्ण की द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ की चारधाम यात्रा भी धार्मिक पर्यटन का अनोखा उदाहरण है.जो देश को  सांस्कृतिक धरातल पर एक सूत्र में पिरोती है.  इन मंदिरों को 8 वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने चारधाम यात्रा के रूप में महिमामण्डित किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम  में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ शिव मंदिर, यमुनोत्री एवं गंगोत्री देवी मंदिर शामिल हैं। ये चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखते हैं। राम कथा व कृष्ण कथा के आधार पर सारे भारत भूभाग में जगह जगह भगवान राम की वन गमन यात्रा व पाण्डवों के अज्ञात वास की यात्रा पर आधारित अनेक धार्मिक स्थल आम जन को पर्यटन के लिये आमंत्रित करते हैं.

इन देव स्थलो के अतिरिक्त हमारी संस्कृति में नदियो के संगम स्थलो पर मकर संक्रांति पर, चंद्र ग्रहण व सूर्यग्रहण के अवसरो पर व कार्तिक मास में नदियो में पवित्र स्नान की भी परम्परायें हैं.चित्रकूट व गिरिराज पर्वतों की परिक्रमा, नर्मदा नदी की परिक्रमा, जैसे अद्भुत उदाहरण हमारी धार्मिक आस्था की विविधता के साथ पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रामाणिक द्योतक हैं. हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में १२ वर्षो के अंतराल पर आयोजित होते कुंभ के मेले तो मूलतः स्नान से मिलने वाली शारीरिक तथा मानसिक  शुचिता को ही केंद्र में रखकर निर्धारित किये गये हैं,एवं पर्यटन को धार्मिकता से जोड़े जाने के विलक्षण उदाहरण हैं. आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है, स्वयं प्रधानमंत्री जी बार बार नागरिको में स्वच्छता के संस्कार, जीवन शैली में जोड़ने का कार्य, विशाल स्तर पर करते दिख रहे हैं. ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  सिंहस्थ कुंभ जैसा महा पर्व मनाया जा रहा है, जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं. सिंहस्थ उज्जैन में संपन्न होता है.  उज्जैन का खगोलीय महत्व, महाकाल शिवलिंग, हरसिद्धि की देवी पीठ तथा कालभैरव के मंदिर के कारण उज्जैन कुंभ सदैव विशिष्ट ही रहा है.

प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतांत्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं जो जनहितकारी व्यवस्था सिंहस्थ हेतु कर रही है पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं, आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा.समाज और शासन को जोड़ने का यह उदाहरण शोधार्थियो की रुचि का विषय हो सकता है. वास्तव में कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है, शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधु संतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है, गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत, संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें होती हैं. लोगों का मिलना जुलना, वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है. धार्मिक पर्यटन हमारी संस्कृति की विशिष्टता है. पर्यटन  नये अनुभव देता है साहित्य तथा नव विचारो को जन्म देता है,  हजारो वर्षो से अनेक आक्रांताओ के हस्तक्षेप के बाद भी भारतीय संस्कृति अपने मूल्यो के साथ इन्ही मेलों समागमो से उत्पन्न अमृत उर्जा से ही अक्षुण्य बनी हुई है.

जब ऐसे विशाल, महीने भर से अधिक अवधि तक चलने वाले भव्य आयोजन संपन्न होते हैं तो जन सैलाब जुटता है स्वाभाविक रूप से वहां धार्मिक सांस्कृतिक नृत्य,  नाटक मण्डलियो के आयोजन भी होते हैं,कला  विकसित होती है.  प्रिंट मीडिया, व आभासी दुनिया के संचार संसाधनो में आज  इस आयोज की  व्यापक चर्चा हो रही  है. लगभग हर अखबार प्रतिदिन सिंहस्थ की खबरो तथा संबंधित साहित्य के परिशिष्ट से भरा दिखता है. अनेक पत्रिकाओ ने तो सिंहस्थ के विशेषांक ही निकाले हैं. सिंहस्थ पर केंद्रित वैचारिक संगोष्ठियां हुई हैं, जिनमें साधु संतो, मनीषियो और जन सामान्य की, साहित्यकारो, लेखको तथा कवियो की भागीदारी से विकीपीडिया और साहित्य संसार लाभांवित हुआ है. सिंहस्थ के बहाने साहित्यकारो, चिंतको को  पिछले १२ वर्षो में आंचलिक सामाजिक परिवर्तनो की समीक्षा का अवसर मिलता है. विगत के अच्छे बुरे के आकलन के साथ साथ भविष्य की योजनायें प्रस्तुत करने तथा देश व समाज के विकास की रणनीति तय करने, समय के साक्षी विद्वानो साधु संतो मठाधीशो के परस्पर शास्त्रार्थो के निचोड़ से समाज को लाभांवित करने का मौका यह आयोजन सुलभ करवाता है. क्षेत्र का विकास होता है, व्यापार के अवसर बढ़ते हैं. जैसे इस बार ही सिंहस्थ में क्षिप्रा नदी में नर्मदा के पानी को छोड़ने की तकनीकी व्यवस्था ने सिंहस्थ स्नान को नव चेतना दी है.

हिंदी के साहित्य संसार को समृद्ध करने के हमारे मनीषियो और चिंतको के उस अव्यक्त उद्देश्य की पूर्ति में अपना योगदान हमें अवश्य योगदान करना चाहिये जिसको लेकर ही कुंभ जैसे महा पर्व की संरचना की गई है, क्योकि मेरे अभिमत में कुंभ धार्मिक ही नहीं एक साहित्यिक और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन रहा है, और भविष्य में तकनीक के विकास के साथ और भी बृहद बनता जायेगा.

 

© अनुभा श्रीवास्तव