(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख – साहित्य का विभाजन कितना उचित ??)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 241 ☆
आलेख – साहित्य का विभाजन कितना उचित ??
हम तरह-तरह की साहित्य खंड या धाराएँ देखते हैं, जैसे स्त्री-विमर्श, दलित साहित्य (संयोग से आभिजात्य साहित्य नहीं), प्रवासी साहित्य, आदि। साहित्य को विभिन्न खेमों में विभाजित करने की क्या सार्थकता है?
समग्रता में साहित्य बहुत विशाल परिदृश्य है। जिस तरह विधा अनुसार काव्य, व्यंग्य कहानी एकाग्र है, उसी तरह अन्य उपवर्ग अध्ययन की दृष्टि से ही देखे जाने चाहिए। युवा लेखक, या वरिष्ठ कवि अथवा अभियंता रचनाकारों को एक जगह एकीकृत कर देने से वे साहित्य की मूल धारा से अलग नही हो जाते।
यह सब कुछ ऐसा ही है मानो देश के बच्चों को स्कूलों में, कक्षाओ में, पी टी ड्रेस के रंगों में, उम्र के अनुसार, रुचि के अनुसार अलग अलग क्लब में, या शिक्षा के भाषाई माध्यम अथवा सी बी एस ई, आई एस सी, या प्रादेशिक बोर्ड के खेमों में वर्गीकृत किया गया हो।
यह सब समग्रता में साहित्य को नए अवसर और विकसित ही कर रहा है।
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
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