हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #3 – जूते ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य   एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “जूते” जो निश्चित ही  आपको जीवन के  कटु सत्य एवं कटु अनुभवों से रूबरू कराएगी।  ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 3 ☆
☆ जूते  ☆

हम नर्मदा-यात्रा पर थे। आदिवासी फगनू सिंह हमारे मार्गदर्शक थे। साथ मदद के लिए छोटू भी था। फिर भी सामान ढोने के लिए हमें रोज़ अपने पड़ाव से दो आदमी लेने पड़ते थे जिन्हें हम अगले पड़ाव पर छोड़ देते थे। गाँवों में निर्धनता ऐसी कि मज़दूरी के नाम से तत्काल लोग हाज़िर हो जाते। जितने चाहिए हों, उठा लो।

मंडला तक के आखिरी चरण में हमारे साथ दो आदिवासी किशोर थे। चुस्त, फुर्तीले, लेकिन पाँव में जूता-चप्पल कुछ नहीं।  कंधे पर बोझ धरे, पथरीली ज़मीन और तपती चट्टानों पर वे नंगे पाँव ऐसे चलते जैसे हम शीतल, साफ ज़मीन पर चलते हैं।  हम में से कुछ लोग हज़ार दो हज़ार वाले जूते धारण किये थे।  दिल्ली से आये डा. मिश्र उन लड़कों की तरफ से आँखें फेरकर चलते थे।  कहते थे, ‘इन्हें चलते देख मेरी रीढ़ में फुरफुरी दौड़ती है। देखा नहीं जाता।  हम तो ऐसे दो कदम नहीं चल सकते।’

मंडला में यात्रा की समाप्ति पर डा. मिश्र इस दल को सीधे जूते की दूकान में ले गये।  बोले, ‘सबसे पहले इन लड़कों के लिए चप्पल ख़रीदना है।  उसके बाद दूसरा काम।’

जूते की दूकान वाले ने पूरे सेवाभाव से उन लड़कों को रबर की चप्पलें पहना दीं।  लड़कों ने तटस्थ भाव से चप्पलें पाँव में डाल लीं।  हमारा अपराध-बोध कुछ कम हुआ।  जूते की दूकान से हम कपड़े की दूकान पर गये जहाँ फगनू सिंह को अपने लिए गमछा ख़रीदना था।  सब ने अपने जूते दूकान के बाहर उतार दिये।  ख़रीदारी ख़त्म करके हम सड़क पर आ गये। आदिवासी लड़के हमारे आगे चल रहे थे। गर्मी में सड़क दहक रही थी।

एकाएक डा. मिश्र चिल्लाये, ‘अरे,ये लड़के अपनी चप्पलें दूकान में ही छोड़ आये।’ लड़कों को बुलाकर चप्पलें पहनने के लिए वापस भेजा गया।

हमारे दल के लीडर वेगड़ जी ताली मारकर हँसे, बोले, ‘प्रकृति को मालूम था कि हमारा समाज इन लड़कों को पहनने के लिए जूते नहीं देगा, इसलिए उसने अपनी तरफ से इंतजाम कर दिया है। ये लड़के हमारी दया के मोहताज नहीं हैं।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)