डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  त्रयोदश अध्याय

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 74 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – त्रयोदश अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। श्रीमद्भागवत गीता जी का अध्याय तेहरवां पढ़िए। अपने आज और कल को उज्ज्वल करिएआज आप पढ़िए।आनन्द उठाइए।

 – डॉ राकेश चक्र 

प्रकृति, पुरुष और चेतना

इस अध्याय में श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रकृति, पुरुष और चेतना के बारे में ज्ञान दिया।

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से पूछा–

क्या है प्रकृति मनुष्य प्रभु,ज्ञेय और क्या ज्ञान?

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या,बोलो कृपानिधान।। 1

 श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रकृति, पुरुष, चेतना के बारे में इस तरह ज्ञान दिया—–

हे अर्जुन मेरी सुनो,कर्मक्षेत्र यह देह।

यह जानेगा जो मनुज, करे न इससे नेह।।2

 

ज्ञाता हूँ सबका सखे,मेरे सभी शरीर।

ज्ञाता को जो जान ले, वही भक्त मतिधीर।। 3

 

कर्मक्षेत्र का सार सुन,प्रियवर जगत हिताय।

परिवर्तन-उत्पत्ति का, कारण सहित उपाय।। 4

 

वेद ग्रंथ ऋषि-मुनि कहें, क्या हैं कार्यकलाप?

क्षेत्र ज्ञान ज्ञाता सभी, कहते वेद प्रताप।। 5

 

मर्म समझ अन्तः क्रिया, यही कर्म का क्षेत्र।

मनोबुद्धि, इंद्रिय सभी, लख अव्यक्ता नेत्र।। 6

 

पंचमहाभूतादि सुख, दुख इच्छा विद्वेष।

अहंकार या धीरता, यही कर्म परिवेश।। 7

 

दम्भहीनता,नम्रता,दया अहिंसा मान।

प्रामाणिक गुरु पास जा, और सरलता जान।। 8

 

स्थिरता और पवित्रता, आत्मसंयमी ज्ञान।

विषयादिक परित्याग से, हो स्वधर्म- पहचान।। 9

 

अहंकार से रिक्त मन, जन्म-मरण सब जान।

रोग दोष अनुभूतियाँ,वृद्धावस्था भान।। 10

 

स्त्री, संतति, संपदा, घर, ममता परित्यक्त।

सुख-दुख में जो सम रहे, वह मेरा प्रिय भक्त।। 11

 

वास ठाँव एकांत में, करते इच्छा ध्यान।

जो अनन्य उर भक्ति से,उनको ज्ञानी मान।। 12

जनसमूह से दूर रह, करे आत्म का ज्ञान।

श्रेष्ठ ज्ञान वह सत्य है, बाकी धूलि समान।। 12

 

अर्जुन समझो ज्ञेय को, तत्व यही है ब्रह्म।

ब्रह्मा , आत्म, अनादि हैं, वही सनातन धर्म।। 13

 

परमात्मा सर्वज्ञ है, उसके सिर, मुख, आँख।

कण-कण में परिव्याप्त हैं, हाथ, कान औ’ नाक।। 14

 

मूल स्रोत इन्द्रियों का, फिर भी वह है दूर।

लिप्त नहीं ,पालन करे, सबका स्वामी शूर।। 15

 

जड़-जंगम हर जीव से, निकट कभी है दूर।।

ईश्वर तो सर्वत्र है, दे ऊर्जा भरपूर।। 16

 

अविभाजित परमात्मा, सबका पालनहार।

सबको देता जन्म है, सबका मारनहार।। 17

 

सबका वही प्रकाश है, ज्ञेय, अगोचर ज्ञान।

भौतिक तम से है परे, सबके उर में जान।। 18

 

कर्म, ज्ञान औ’ ज्ञेय मैं, सार और संक्षेप।

भक्त सभी समझें मुझे, नहीं करें विक्षेप।। 19

 

गुणातीत है यह प्रकृति ,जीव अनादि अजेय।

प्रकृति जन्य होते सभी, समझो प्रिय कौन्तेय।। 20

 

प्रकृति सकारण भौतिकी, कार्यों का परिणाम।

सुख-दुख का कारण जगत,वही जीव-आयाम।। 21

 

तीन रूप गुण-प्रकृति के,करें भोग- उपयोग।

जो जैसी करनी करें, मिलें जन्म औ’ रोग।। 22

 

दिव्य भोक्ता आत्मा, ईश्वर परमाधीश।

साक्षी, अनुमति दे सदा, सबका न्यायाधीश।। 23

 

प्रकृति-गुणों को जान ले, प्रकृति और क्या जीव?

मुक्ति-मार्ग निश्चित मिले, ना हो जन्म अतीव।। 24

 

कोई जाने ज्ञान से, कोई करता ध्यान।

कर्म करें निष्काम कुछ, कोई भक्ति विधान।। 25

 

श्रवण करें मुझको भजें, संतो से कुछ सीख।

जनम-मरण से छूटते, जीवन बनता नीक।। 26

 

भरत वंशी श्रेष्ठ जो, चर-अचरा अस्तित्व।

ईश्वर का संयोग बस, कर्मक्षेत्र सब तत्व।। 27

 

आत्म तत्व जो देखता, नश्वर मध्य शरीर।

ईश अमर और आत्मा,वे ही संत कबीर।। 28

 

ईश्वर तो सर्वत्र है, जो भी समझें लोग।

दिव्यधाम पाएँ सदा, ये ही सच्चा योग।। 29

 

कर्म करें जो हम यहाँ, सब हैं प्रकृति जन्य।

सदा विलग है आत्मा, सन्त करें अनुमन्य।। 30

 

दृष्टा है यह आत्मा, बसती सभी शरीर।

जो सबमें प्रभु देखता, वही दिव्य सुधीर।। 31

 

अविनाशी यह आत्मा, है यह शाश्वत दिव्य।

दृष्टा बनकर देखती, मानव के कर्तव्य।। 32

 

सर्वव्याप आकाश है, नहीं किसी में लिप्त।

तन में जैसे आत्मा, रहती है निर्लिप्त।। 33

 

सूर्य प्रकाशित कर रहा, पूरा ही ब्रह्मांड।

उसी तरह यह आत्मा, चेतन और प्रकांड।। 34

 

ज्ञान चक्षु से जान लें, तन, ईश्वर का भेद।

विधि जानें वे मुक्ति की, जीवन बने सुवेद।। 35

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” प्रकृति, पुरुष तथा चेतना ” तेहरवां अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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