श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 102 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – तस्मै श्रीगुरवै नम: ☆

गुरु ऐसा शब्द जिसके उच्चारण और अनुभूति के साथ एक प्रकार की दिव्यता जुड़ी है, सम्मान की प्रतीति जुड़ी है। गुरु का शाब्दिक अर्थ है अंधकार को दूर करने वाला।

प्रायः हरेक के मन में यह प्रश्न उठता है कि क्या जीवन में एक ही गुरु हो सकता है? इसका उत्तर दैनिक जीवन के क्रियाकलापों और सांस्कृतिक परम्पराओं में अंतर्भूत है।

वैदिक संस्कृति में भिन्न-भिन्न गुरुकुलों में अध्ययन की परंपरा रही। गुरुकुल में शिक्षा और विचार की भिन्नता भी मिलती है। इन्हें विभिन्न- ‘स्कूल्स ऑफ थॉट’ कहा जा सकता है। वर्तमान में मुक्त शिक्षा का मॉडल काम कर रहा है। छात्र, विज्ञान के साथ कला और वाणिज्य का विषय भी पढ़ सकते हैं। शिक्षा ग्रहण करते हुए कभी भी अपना ‘स्कूल ऑफ थॉट’ बदल सकते हैं।

वर्णमाला का उच्चारण विद्यार्थी के.जी. में सीखता है। प्री-प्राइमरी में वर्ण लिखना सीखता है। शिक्षा के बढ़ते क्रम के साथ शब्द, तत्पश्चात शब्द से वाक्य, फिर परिच्छेद जानता है, अंततोगत्वा धाराप्रवाह लिखने लगता है। के.जी. से पी.जी. तक के प्रवास में कितने गुरु हुए? जिनसे के.जी. में पढ़ा, उन्हीं से पी.जी. में क्यों नहीं पढ़ते? उलट कर भी देख सकते हैं। जिनसे पी.जी. में पढ़ा, उनसे ही के.जी. में पढ़ाने के लिए क्यों नहीं कहते? यही नहीं भाषा की शिक्षा के लिए अलग शिक्षक, चित्रकला के लिए अलग, शारीरिक शिक्षा, विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र हर एक के लिए अलग शिक्षक। उच्च शिक्षा में तो विषय के एक विशिष्ट भाग में स्पेशलाइजेशन किया हुआ शिक्षक होता है। कोई एम.डी.मेडिसिन, कोई स्त्रीरोग विशेषज्ञ, कोई हृदयरोग विशेषज्ञ तो एम.एस. याने शल्य चिकित्सक।

काव्य में कोई गीत का विशेषज्ञ है, कोई ग़ज़ल कहने का व्याकरण बताता है तो कोई मुक्त कविता में लयबद्ध होकर बहना सिखाता है। सभी विधाएँ एक ही से क्यों नहीं सिखी जा सकती? खननशास्त्र का ज्ञाता, गगनशास्त्र नहीं पढ़ा सकता, हवाई जहाज उड़ाने का प्रशिक्षण देनेवाला, पानी का जहाज चलाना नहीं सिखा सकता। भरतनाट्यम, कथक, कुचिपुड़ी, मणिपुरी की साधना एक ही नृत्यगुरु के पास नहीं साधी जा सकती।

गुरु और शिक्षक की भूमिका को लेकर भी अनेक के मन में ऊहापोह होता है। यह सच है कि एक समय गुरु और शिक्षक में अंतर था। शिक्षक अपना पारिश्रमिक स्वयं निर्धारित करता था जबकि गुरु को प्रतिदान शिष्य देता था। कालांतर में बदलती परिस्थितियों ने इस अंतर-रेखा को धूसर कर दिया। वर्तमान में गुरु और शिक्षक न्यूनाधिक पर्यायवाची हैं। शिक्षक, जीवन को अक्षर और व्यवहार के ज्ञान का प्रकाश देनेवाला गुरु है।

गुरुदेव दत्त अर्थात भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेव का अवतार माना जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समन्वित अवतार की यह आस्था अनन्य है। उन्होंने चौबीस गुरु बनाये थे। राजा यदु को इन गुरुओं की जानकारी देते हुए भगवान दत्तात्रेय ने आत्मा को सर्वोच्च गुरु घोषित किया। साथ ही बताया कि चौबीस चराचर को गुरु मानकर उनसे जीवनदर्शन की शिक्षा ग्रहण की है। भगवान के ये चौबीस गुरु हैं, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, समुद्र, अजगर, कपोत, पतंगा, मछली, हिरण, हाथी, मधुमक्खी, शहद निकालने वाला, कुरर पक्षी, कुमारी कन्या, सर्प, बालक, पिंगला नामक वैश्या, बाण बनाने वाला, मकड़ी, और भृंगी कीट। प्रत्येक गुरु से उन्होंने जीवन का भिन्न आयाम सीखा।

बहुआयामी ज्ञानदाता माँ प्रथम गुरु होती हैं। माँ प्रथम होती हैं अर्थात द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम गुरु भी होते हैं। इनमें से कोई किसीका स्थान नहीं ले सकता वरन हरेक का अपना स्थान होता है।

आज शिक्षक दिवस के संदर्भ में विनम्रता से कहता हूँ कि प्रत्येक का मान करो। ज्ञान को धारण करो, जिज्ञासानुसार एक अथवा अनेक गुरु करो।..तस्मै श्रीगुरवै नम:।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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माया कटारा

सचाई , इन्सानियत की राह दिखानेवाले एक श्रेष्ठ गुरु हैं आदरणीय महोदय !
निष्काम सेवा भाव आपकी पहचान है , विनम्रता आपका भूषण है ,
मेरी दृष्टि से संजय की दिव्य दृष्टि प्राप्त संवादक एवं शब्द शिल्पकार हैं , मैं आज तक जाने-अनजाने आपसे पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर चुकी हूँ , कठिन समय में आपके आलोक से आलोकित हुई हूँ – आपके मूक , मुखरित गुरुत्व को शत-शत नमन —