सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “जब मैं हताश होती हूँ”। )
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 87 ☆
☆ जब मैं हताश होती हूँ ☆
आज जब सैर करने को अपने बाग़ में निकली
तो दिखाई दिया एक मधुमक्खी का छत्ता
जो कि पड़ा था अकेला, टूटा, हताश, बेबस और उदास…
कहाँ चली गयी थीं सारी मधुमक्खियाँ?
कहाँ जा रहे हैं यह सारे इंसान?
दिल्ली से एक दोस्त के मरने की खबर आयी है…
उधर छत्तीसगढ़ से एक और दोस्त जा चुका है…
दो प्रयागराज में, एक तेलंगाना में…
क्यों अचानक चले जा रहे हैं सब?
क्या होगा उस छत्तीस साल के युवक का
जिसकी पत्नी नौकरी भी नहीं करती थी
और जिसके बच्चे अभी बहुत छोटे हैं?
क्या होगा उस पैंतीस साल की युवती का
जिसके तीन छोटे बच्चे रो-रो कर बिलख रहे हैं?
यूँ तो मैं टेलीविज़न बरसों से नहीं देखती…
पर यह सारे दृश्य मन के पटल पर
चले ही जा रहे हैं…
यूँ लग रहा है जैसे शज़र पर से सारी पत्तियाँ
बिना पीले हुए ही गिर जायेंगी!
कल कहा था मैंने कि मैं शमां बनकर राह दिखाऊँगी…
क्या राह दिखाऊँ?
कैसे आस बाँधूँ किसी की?
मैं भी गिर जाती हूँ औंधी होकर अपने बिस्तर पर
अकेली, टूटी, हताश, बेबस और उदास…
© नीलम सक्सेना चंद्रा
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈