श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ संजय उवाच # 103 ☆ मील का पत्थर ☆
संध्याकाल है, टहलने निकला हूँ। लगभग 750 मीटर लम्बा यह फुटपाथ सामान्य से अधिक चौड़ा है, साथ ही समतल और स्वच्छ। तुलनात्मक रूप से अधिक लोग इस पर टहल सकते हैं।
अवलोकन की दृष्टि टहलते लोगों के कदमों की गति मापने लगती है। देखता हूँ कि लगभग अस्सी वर्षीय एक वृद्ध टहलते हुए आ रहे हैं, एकदम धीमी गति, बहुत धीरे-धीरे बेहद संभलकर कदम रखते हुए, हर कदम के साथ शरीर का संतुलन बनाकर चल रहे हैं।
जिज्ञासा बढ़ती है, तुलनात्मक विवेचन जगता है, पचास-पचपन की आयु के कदमों को मापता है। उनके चलने की गति कुछ अधिक और शरीर का संतुलन साधे रखने का प्रयास तुलनात्मक रूप से कम है। तीस-पैंतीस की आयु वालों के कदमों की गति और अधिक है, वे अधिक निश्चिंत भी हैं। किशोर से युवावस्था के लोग हैं जो सायास टहलने की दृष्टि से नहीं अपितु मित्रों के साथ हँसी मजाक करते हुए चल रहे हैं। छह-सात साल की एक नन्ही है जो चलती कम, उछलती, कूदती, थिरकती, दौड़ती अधिक है। उसके माता-पिता आवाज़ लगाते हैं, उसी तरह दौड़ती-गाती आती है, माँ से कुछ कहती है, अगले ही क्षण फिर छूमंतर! मानो आनंद का एक अनवरत चक्र बना हुआ है।
इसी चक्र से प्रेरित होकर चिंतन का चक्र भी घूमने लगता है। अवलोकन में आए लोगों का आयुसमूह भिन्न है, दैहिक अवस्था और क्षमता भिन्न है। तथापि आनंद ग्रहण करने की क्षमता और मनीषा, यात्रा को सुकर अथवा दुष्कर करती हैं।
किसी गाँव में मंदिर बन रहा था। ठेकेदार के कुछ श्रमिक काम में लगे थे। एक बटोही उधर से निकला। सिर पर गारा ढो रहे एक मजदूर से पूछा, “क्या कर रहे हो?” उसने कहा पिछले जन्म में अच्छे कर्म नहीं किए थे सो इस जन्म में गारा ढो रहा हूँ।” दूसरे से पूछा, उसने कहा, “अपने बच्चों का पेट पालने की कोशिश कर रहा हूँ।” तीसरे ने कहा, ” दिखता नहीं, मजदूरी करके गृहस्थी की गाड़ी खींच रहा हूँ।” चौथे श्रमिक के चेहरे पर आनंद का भाव था। सिर पर कितना वज़न है, इसका भी भान नहीं। पूछने पर पुलकित होकर बोला, “गाँव में सियाराम जी का मंदिर बन रहा है। मेरा भाग्य है कि मैं उसमें अपनी सेवा दे पा रहा हूँ।”
दृष्टि की समग्रता से जगत को देखो, सर्वत्र आनंद छलक रहा है। इसे ग्रहण करना या न करना तुम्हारे हाथ में है। इतना स्मरण रहे कि परमानंद की यात्रा में आनंद मील का पत्थर सिद्ध होता है।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
यह सत्य है कि दृष्टिकोण और दृष्टि ही विचार करने की क्षमता को दिशा देते हैं पर इसमें मानसिकता की भूमिका बहुत बड़ी होती है।प्रसन्न चित्त सदैव चहुँओर आनंद का संचार ही देखता है।
आनंद ग्रहण करने की क्षमता का मापदंड स्वयं पर निर्भर करता है ।यह एक मानसिक अवस्था है जिसमें आयु , यात्रांतर मायने नहीं रखते । इस यात्रा में आनंद ही मील का पत्थर प्रमाणित होता है – अपनी -अपनी दृष्टि ,अपना -अपना दृष्टिकोण
.है….. गहन भाव प्रतिक्रिया ..