हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 15 – व्यंग्य – हश्र एक उदीयमान नेता का ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे. डॉ कुंदन सिंह परिहार जी ने अपने प्राचार्य जीवन में अपने छात्रों को  छात्र नेता , वरिष्ठ नेता , डॉक्टर , इंजीनियर से लेकर उच्चतम प्रशासनिक पदों  तक जाते हुए देखा है. इसके अतिरिक्त  कई छात्रों को बेरोजगार जीवन से  लेकर स्वयं से जूझते हुए तक देखा है.  इस क्रिया के प्रति हमारा दृष्टिकोण भिन्न हो सकता है किन्तु, उनके जैसे वरिष्ठ प्राचार्य का अनुभव एवं दृष्टिकोण निश्चित ही भिन्न होगा जिन्होंने ऐसी प्रक्रियाओं को अत्यंत नजदीक से देखा है. आज प्रस्तुत है  उनका  व्यंग्य  “हश्र एक उदीयमान नेता का” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 15 ☆

 

☆ व्यंग्य – हश्र एक उदीयमान नेता का ☆

 

भाई रामसलोने के कॉलेज में दाखिला लेने का एकमात्र कारण यह था कि वे सिर्फ इंटर पास थे और धर्मपत्नी विमला देवी बी.ए.की डिग्री लेकर आयीं थीं।  परिणामतः रामसलोने जी में हीनता भाव जाग्रत हुआ और उससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने बी.ए. में दाखिला ले लिया।

दैवदुर्योग से जब परीक्षा-फार्म भरने की तिथि आयी तब प्रिंसिपल ने उनका फार्म रोक लिया।  बात यह थी कि रामसलोने जी की उपस्थिति पूरी नहीं थी।  कारण यह था कि बीच में विमला देवी ने जूनियर रामसलोने को जन्म दे दिया, जिसके कारण रामसलोने जी ब्रम्हचारी के कर्तव्यों को भूलकर गृहस्थ के कर्तव्यों में उलझ गये।  कॉलेज से कई दिन अनुपस्थित रहने के कारण यह समस्या उत्पन्न हो गयी।

प्रिंसिपल महोदय दृढ़ थे।  रामसलोने की तरह आठ-दस छात्र और थे जो पढ़ाई के समय बाज़ार में पिता के पैसे का सदुपयोग करते रहे थे।

सब मिलकर प्रिंसिपल महोदय से मिले।  कई तरह से प्रिंसिपल साहब से तर्क-वितर्क किये, लेकिन वे नहीं पसीजे।  रामसलोने जी आवेश में आ गये।  अचानक मुँह लाल करके बोले, ‘आप हमारे फार्म नहीं भेजेंगे तो मैं आमरण अनशन करूँगा।’ साथी छात्रों की आँखों में प्रशंसा का भाव तैर गया, लेकिन प्रिंसिपल महोदय अप्रभावित रहे।

दूसरे दिन रामसलोने जी का बिस्तर कॉलेज के बरामदे में लग गया।  रातोंरात वे रामसलोने जी से ‘गुरूजी’ बन गये।  कॉलेज का बच्चा-बच्चा उनका नाम जान गया।  साथी छात्रों ने उनके अगल-बगल दफ्तियाँ टांग दीं जिनपर लिखा था, ‘प्रिंसिपल की तानाशाही बन्द हो’, ‘छात्रों का शोषण बन्द करो’, ‘हमारी मांगें पूरी करो’, वगैरः वगैरः।  उन्होंने रामसलोने का तिलक किया और उन्हें मालाएं पहनाईं।  रामसलोने जी गुरुता के भाव से दबे जा रहे थे।  उन्हें लग रहा था जैसे उनके कमज़ोर कंधों पर सारे राष्ट्र का भार आ गया हो।

अनशन शुरू हो गया।  साथी छात्र बारी- बारी से उनके पास रहते थे।  बाकी समय आराम से घूमते-घामते थे।

तीसरे दिन रामसलोने जी को उठते बैठते कमज़ोरी मालूम पड़ने लगी।  प्रिंसिपल महोदय उन्हें देखने आये, उन्हें समझाया, लेकिन साथी छात्र उनकी बातों को बीच में ही ले उड़ते थे।  उन्होंने प्रिंसिपल की कोई बात नहीं सुनी, न रामसलोने को बोलने दिया।

रामसलोने जी की हालत खस्ता थी।  उन्हें आवेश में की गयी अपनी घोषणा पर पछतावा होने लगा था और पत्नी के हाथों का बना भोजन दिन-रात याद आता था।  उनका मनुहार करके खिलाना भी याद आता था।  लेकिन साथियों ने उनका पूरा चार्ज ले लिया था। वे ही सारे निर्णय लेते थे। रामसलोने जी के हाथ में उन्होंने सिवा अनशन करने के कुछ नहीं छोड़ा था।

डाक्टर रामसलोने जी को देखने रोज़ आने लगा।  प्रिंसिपल भी रोज़ आते थे, लेकिन न वे झुकने को तैयार थे, न रामसलोने जी के साथी।

आठवें दिन डाक्टर ने रामसलोने जी के साथियों को बताया कि उनकी हालत अब खतरनाक हो रही है। रामसलोने जी ने सुना तो उनका दिल डूबने लगा। लेकिन उनके साथी ज़्यादा प्रसन्न हुए।  उन्होंने रामसलोने जी से कहा, ‘जमे रहो गुरूजी! अब प्रिंसिपल को पता चलेगा। आप अगर मर गये तो हम कॉलेज की ईंट से ईंट बजा देंगे।’  रामसलोने के सामने दुनिया घूम रही थी।

दूसरे दिन से उनके साथी वहीं बैठकर कार्यक्रम बनाने लगे कि अगर रामसलोने जी शहीद हो गये तो क्या क्या कदम उठाये जाएंगे।  सुझाव दिये गये कि रामसलोने जी की अर्थी को सारे शहर में घुमाया जाए और उसके बाद सारे कॉलेजों में अनिश्चितकालीन हड़ताल और शहर बन्द हो।  ऐसा उपद्रव हो कि प्रशासन के सारे पाये हिल जाएं।  उन्होंने रामसलोने जी से कहा, ‘तुम बेफिक्र रहो, गुरूजी। कॉलेज के बरामदे में तुम्हारी मूर्ति खड़ी की जाएगी।’

रात को आठ बजे रामसलोने जी  अपने पास तैनात साथी से बोले, ‘भैया, एक नींबू ले आओ, मितली उठ रही है।’  इसके पाँच मिनट बाद ही एक लड़खड़ाती आकृति सड़क पर एक रिक्शे पर चढ़ते हुए कमज़ोर स्वर में कह रही थी, ‘भैया, भानतलैया स्कूल के पास चलो। यहाँ से लपककर निकल चलो।’

एक घंटे के बाद बदहवास छात्रों का समूह रामसलोने जी के घर की कुंडी बजा रहा था, परेशान आवाज़ें लगा रहा था। सहसा दरवाज़ा खुला और चंडी-रूप धरे विमला देवी दाहिने कर-कमल में दंड।  धारे प्रकट हुईं।  उन्होंने भयंकर उद्घोष करते हुए छात्र समूह को चौराहे के आगे तक खदेड़ दिया।  खिड़की की फाँक से दो आँखें यह दृश्य देख रही थीं।

कुन्दन सिंह परिहार